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________________ जैनाचार्यों ने कहा है कि एक विचार से दूसरे विचार पर, एक ज्ञेय से दूसरे ज्ञेय पर जाते समय जहाँ पहला विचार समाप्त होता है और फिर दूसरा विचार उत्पन्न होता है, इन दोनों विचारों के मध्य में जो निर्विचार अवस्था है, वही 'दर्शन' है। अर्थात् जहाँ विचार, चिंतन व विकल्प नहीं होता है, उस निर्विकल्प अवस्था के समय जीव का दर्शनोपयोग होता है। जैन दर्शन में यह भी कहा गया है कि अंतर्मुहूर्त में उपयोग बदलता ही है अर्थात् दर्शनोपयोग से ज्ञानोपयोग में और ज्ञानोपयोग से दर्शनोपयोग में बदलाव होता ही रहता है। तात्पर्य यह है कि अंतर्मुहूर्त में प्रत्येक जीव को अनेक बार दर्शनोपयोग होता ही है, अर्थात् जीव इस निर्विकल्प अवस्था को प्राप्त होता ही है। इससे यह भी परिणाम निकलता है कि जीव को निर्विकल्पता (दर्शनोपयोग) की उपलब्धि अन्तर्मुहूर्त में अनेक बार स्वतः सहज, अनायास ही होती है। (कसायपाहुड गाथा 16 से 20 के अनुसार ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग का उत्कृष्टकाल एक क्षुद्रभव प्रमाण है।) परन्तु सामान्यतया जीव को उस निर्विकल्प अवस्था का बोध या परिचय नहीं होता है। इसका प्रथम कारण तो यह है कि सामान्य प्राणी को इस निर्विकल्प अवस्था रूप दर्शनोपयोग की अनुभूति अत्यल्प काल पलभर से भी कम काल तक होती है। अतः उसे इसका पता ही नहीं चलता। द्वितीय कारण यह है कि जैसे ही व्यक्ति इसे जानना चाहता है, वैसे ही उसमें चिंतन प्रारंभ हो जाता है और ज्ञानोपयोग चालू हो जाता है। अतः दर्शनोपयोग का अनुभव उन्हीं को होता है, जो अधिक काल तक निर्विकल्प अवस्था में ठहर कर स्वसंवेदन कर सकें। यह स्थिति अंतर्मुखी अवस्था में ही संभव है। जैसा कि षट्खण्डागम की धवलाटीका में कहा है- 'अंतर्मुख चैतन्य दर्शन है और बहिर्मुख चित्प्रकाश ज्ञान है।' (धवला पुस्तक 1 पृ. 94) ऐसी अंतर्मुख अवस्था की अनुभूति ध्यान के समय ही होती है। अतः जो साधक ध्यान-साधना के द्वारा अंतर्मुखी होकर कुछ समय तक निर्विकल्प रहकर स्वसंवदेन करते हैं, वे ही दर्शनोपयोग व दर्शनगुण से परिचित होते हैं। स्व-संवेदन करना ही स्वरूप-संवेदन करना है, आत्मसाक्षात्कार करना है। अतः आत्म-साक्षात्कार करने वाले साधकों को ही दर्शनोपयोग व दर्शनगुण का बोध होता है, अन्य सब प्राणियों के भी दर्शनोपयोग व दर्शनगुण होता है, परन्तु उन्हें इनका बोध नहीं होता है। 78 दर्शनावरण कर्म
SR No.023113
Book TitleBandhtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2010
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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