SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 155
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दर्शनोपयोग के अभाव में ज्ञानोपयोग नहीं - इन्द्रियों का वस्तु से संपर्क व सन्निकर्ष होने से चेतना में सर्वप्रथम संवेदन होता है। संवेदन से चेतना में हलचल होती है। वस्तु के अस्तित्व का अनुभव (Sensation) होता है । फिर कुछ है, क्या है आदि विकल्प होते हैं। ये विकल्प पर के विषय में होते हैं, अतः पर से संबंधित हैं। पर से संबंधित होना बहिर्मुखी होना है। अतः जहाँ अवग्रह - ईहा आदि ज्ञानोपयोग है अर्थात् चिंतन है, वहाँ बहिर्मुखीपना है। वहाँ चेतना का प्रवाह शरीर व संसार की ओर रहता है। इसमें निजरस का आस्वादन तथा स्वसंवेदन नहीं होता है। जहाँ निज रस नहीं, वहाँ निजानंद नहीं, फिर वह चिंतन अविनाशी के सम्बन्ध में भी क्यों न हो । अतः जहाँ चिंतन है, विकल्प है, विचार है, भेद है, भिन्नता है वहाँ आकार है, आकार में ही भेद व भिन्नता प्रतीत होती है । वहाँ दर्शन या स्व-संवेदन नहीं है, चिन्मयता का बोध नहीं है - स्वानुभव नहीं है । अतः अचिंतन या निर्विकल्पता में ही चिन्मयता है । परन्तु यह अचिंतन, निर्विकल्पता, निद्रा या मूर्च्छित अवस्था रूप हो, मोह रूप हो तो जड़ता है, चिन्मयता नहीं । जैसे पत्थर, दीवार, पुस्तक आदि में विकल्पता नहीं होने पर भी वे जड़ ही हैं । सजग अवस्था की निर्विकल्पता में ही चिन्मयता का बोध होता है, जड़ता रूप निर्विकल्पता में चिन्मयता का बोध नहीं होता है । प्राणिमात्र में अंतर्मुहूर्त में ज्ञानोपयोग व दर्शनोपयोग बदलते रहते हैं अर्थात् दर्शनोपयोग अवश्य आता ही है। दूसरे शब्दों में कहें तो अंतर्मुहूर्त के भीतर प्राणिमात्र में निर्विकल्प स्थिति आती है। जहाँ एक विकल्प या विचार-विमर्श समाप्त होता है और दूसरा विकल्प प्रारम्भ होता है उस अंतराल अवस्था में निर्विकल्पता आती है । निर्विकल्पता में चिन्मय अवस्था है ही । परन्तु वह काल इतना अल्प होता है कि वह कब आता है और कब चला जाता है, कुछ पता ही नहीं चलता। हमें जो भी पता चलता है एवं जानकारी होती है, वह चिंतन अवस्था की होती है । चिंतन में प्रवाह होता है, प्रवृत्ति होती है, गति होती है तथा चिंतन का माध्यम मन या चित्त है । इसी कारण हमें सदैव चित्त चंचल या चलायमान लगता है । यदि हम किसी चिंतन रूप प्रवृत्ति अर्थात् विकल्प की समाप्ति पर कुछ क्षण (समय) नया विकल्प न उठायें, शान्त रहें तो उस समय चिन्मयता का बोध तथा निज रस का, निजानंद का अनुभव होने लगेगा । 76 दर्शनावरण कर्म
SR No.023113
Book TitleBandhtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2010
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy