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________________ (7) प्रचला- चलायमान अवस्था में निद्रा आना प्रचला है। (8) प्रचला-प्रचला– प्रचला की पुन:-पुनः आवृत्ति होना प्रचला-प्रचला है। (9) स्त्यानगृद्धि-सुप्त अवस्था में चलना-फिरना या अन्य कार्य करना, स्त्यानगृद्धि है। जो चैतन्य गुण को प्रकट न होने दे, जड़ता उत्पन्न करे, वह निद्रा है। दर्शन गुण का विकास-क्रम चेतन-अचेतन में मुख्य अन्तर है- उपयोग गुण का। जिसमें उपयोग गुण है, वह चेतन और जो उपयोग गुण से रहित है वह अचेतन है। उपयोग गुण दो प्रकार का है- 1. निराकार उपयोग और 2. साकार उपयोग। निराकार उपयोग, साकार उपयोग के पहले होता है। आगम की भाषा में निराकार उपयोग को दर्शन कहते हैं और साकार उपयोग को ज्ञान कहते हैं। दर्शन के मुख्य लक्षण हैं- यह 1. अनाकार 2. निर्विकल्प 3. अभेदरूप तथा 4. अनिर्वचनीय- अकथनीय होता है। यह चेतना का प्रधान गुण है कारण कि इसके अभाव में ज्ञान नहीं होता है। पहले दर्शन होता है, तब ही ज्ञान होता है। ज्ञान का आधार दर्शन ही है। दर्शन गुण चेतनता (चैतन्य) का, चिन्मयता का द्योतक है। संवेदन का होना ही चेतना का गुण है, जड़ को संवेदन नहीं होता। इसी से दर्शन को धवला टीका में स्व-संवेदन कहा है। अर्थात् स्वयं में होने वाला संवेदन दर्शनोपयोग है, जो वेदन क्रिया के रूप में सातावेदनीय-असातावेदनीय के रूप में प्रकट होता है। चेतनता (दर्शनगुण) का विलोम गुण है- जड़ता। चेतन में चैतन्य गुण स्वभावगत है। चेतन के असंख्यात प्रदेश हैं, ये सब प्रदेश चेतनतामय हैं। यह गुण सर्व चेतन में सदा समान बना रहता है, इसमें न्यूनाधिकता नहीं होती है। न्यूनाधिकता होती है, इस गुण के प्रकटीकरण में। मोह के कारण आवरण आ जाने से उस चेतनता का प्रकटीकरण कम-ज्यादा होता रहता है। शरीर, संसार आदि जड़ पदार्थों के प्रति आसक्ति से, राग से मोह होता है। जड़ के प्रति राग या मोह होने से जड़ से सम्बन्ध जुड़ता है, जड़ से जुड़ने से जड़ता आती है। जड़ता आने से चेतनता गुण आवरित होता है। मोह, मूर्छा का द्योतक है और मूर्छा दर्शनावरण कर्म
SR No.023113
Book TitleBandhtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2010
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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