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________________ ज्ञानावरणीय के स्थान में 'दर्शनावरणीय' कहना चाहिए यावत् दर्शन विसंवादन योग और दर्शनावरणीय कार्मण-शरीर प्रयोग नामकर्म के उदय से दर्शनावरणीय कार्मण-शरीर प्रयोग-बंध होता है। ऊपर ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्म-बंध के छ: कारण बताये गये, ये छ:-छ: कारण तत्त्वार्थ सूत्र अध्ययन 6 सूत्र 11 में इस प्रकार बताये गये हैं, यथा “तत्प्रदोषनिनवमात्यर्यान्तयाआदनोपघाताज्ञानदर्शनावरणयोः।" अर्थात् 1. प्रदोष 2. निह्नव 3. मात्सर्य 4. अन्तराय 5. आसादन और 6. उपघात । ये ज्ञानावरणीय तथा दर्शनावरणीय कर्म के आस्रव (बंध-हेतु) हैं। ऊपर ज्ञानावरणीय-दर्शनावरणीय के छ:-छ: कारण कहे गये हैं, परन्तु आगमों में समुच्चय कर्म-बंध के कारणों को अलग प्रकार से भी कहा गया है यथा- पन्नवणासूत्र के 23 वें पद के प्रथम उद्देशक में तथा उत्तराध्ययन सूत्र के बत्तीसवें अध्ययन में 'रागो य दोसो विय कम्मबीयं अर्थात् राग और द्वेष को ही कर्म-बंध का कारण व बीज कहा है। कर्म-सिद्धान्त में सामान्य रूप से योग और कषाय को ही बंध का कारण बताया है। इस प्रकार आगम में व कर्म-सिद्धान्त विषयक ग्रन्थों में विशेष रूप से अलग-अलग कर्म के भिन्न-भिन्न कारण तथा सामान्य रूप से मूल कारण बताये गये हैं। यहाँ ज्ञानावरणीय व दर्शनावरणीय कर्म के उत्तर कारणों का अभिप्राय मूल कारणों को ध्यान में रखकर समझने का प्रयास किया जा रहा है। समस्त कर्म-बंध का मूल कारण विषय-सुखों का भोग है। जिससे विषय-भोगों की पूर्ति होती है, उसके प्रति राग उत्पन्न होता है और जिनसे विषय-भोगों में बाधा उपस्थित होती है, उनके प्रति द्वेष उत्पन्न हो जाता है। अर्थात् विषय-भोगों की अनुकूलता में राग और प्रतिकूलता में द्वेष उत्पन्न होता है। राग की अभिव्यक्ति माया (ममता) और लोभ (लुब्धता) के रूप में होती है और द्वेष की अभिव्यक्ति क्रोध (क्षोभ-विषाद) एवं मान (अहंकार) के रूप में होती है। इस प्रकार क्रोध, मान, माया और लोभ ये चारों कषाय राग-द्वेष रूप हैं एवं विषय-भोगों की देन हैं। विषय-भोग की रुचि से इन्द्रिय की अर्थात् मन, वचन, काया की प्रवृत्ति होती है जिसे योग 36 ज्ञानावरण कर्म
SR No.023113
Book TitleBandhtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2010
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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