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________________ प्रथमो विलासः [४५] कथिता च विप्रलब्धा स्वाधीनपतिका चान्या ।।१२२।। शृङ्गारकृतावस्थाभेदात् ताश्चाष्टधा भिन्नाः ।। नायिकाओं की आठ अवस्थाएँ- शृङ्गार (रस) के लिए अवस्थाभेद से नायिकाएँ भिन्न-भिन्न आठ प्रकार की होती हैं- (१) प्रोषितपतिका (२) वासकसज्जा (३) विरहोत्का (४) खण्डिता (५) कलहान्तरिता (६) अभिसारिका (७) विप्रलब्धा और (८) स्वाधीनपतिका।।१२१उ.-१२३पू.।। तत्र प्रोषितपतिका दूरदेशं गते कान्ते भवेत्प्रोषितभर्तृका ।।१२३।। अस्यास्तु जागरः काय निमित्तादिविलोकनम् । मालिन्यमनवस्थानं प्रायः शय्यानिषेवणम् ।।१२४।। जाड्यचिन्ताप्रभृतयो विक्रियाः कथिता बुधैः । यथा ममैव दूरे तिष्ठत सोऽधुना प्रियतमः प्राप्तो वसन्तोत्सवः कष्टं कोकिलकूजितानि सहसा जातानि दम्भोलयः । अङ्गान्यप्यवशानि याचिकतां यातीव मे चेतना हा कष्टं मम दुष्कृतस्य महिमा चन्द्रोऽपि चण्डायते ।।60।। (१) प्रोषितपतिका (प्रोषितभर्तृका)- प्रियतम के दूर देश में चले जाने पर (नायिका) प्रोषित-भर्तृका कहलाती है। जागरण, दुर्बलता, शकुन (निमित्त) आदि देखना, मलिनता, स्थिर न रहना(अनवस्थान), प्रायः शय्या पर पड़े रहना, जड़ता, चिन्ता इत्यादि इस (प्रोषितभर्तृका नायिका) की विक्रियाएँ आचार्यों द्वारा कही गयी हैं।।१२३उ.-१२५पू.।। जैसे शिङ्गभूपाल का ही वह (मेरा) प्रियतम (इस समय मुझसे) दूर (देश) में रह रहा है और वसन्तोत्सव आ गया है। यह कष्ट की (ही बात) है कि ( इस समय होने वाली) कोयलों की पूजन मेरे लिए वज्र (के समान) हो गयी है। मेरे अङ्ग (मेरे) वश में नहीं है। मेरी चेतना मानो याचकता को प्राप्त हो रही है( अर्थात् याचना करने वाली हो गयी है।) मेरे दुर्भाग्य की ही यह महिमा है कि (शीतल) चन्द्रमा भी (मेरे लिए) प्रचण्ड ताप उगल रहा है- यह कष्ट का विषय है।।60।। अथ वासकसज्जिका भरताचैरभिदधे स्त्रीणां वारस्तु वासकः ।।१२५।। स्ववासगते कान्ते समेष्यति गृहान्तिकम् । सज्जीकरोति चात्मानं या सा वासकसज्जिका ।।१२६।।
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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