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________________ [३२] रसार्णवसुधाकरः .. अप्रियं वा प्रियं वापि न किञ्चिदपि भाषते ।।९।। स्वकीया नायिका के भेद- वह (स्वकीया नायिका) (अ) मुग्धा, (आ) मध्या और (इ) प्रौढ़ा- (भेद से) तीन प्रकार की कही गयी है।।९६उ.॥ (अ) मुग्धा स्वीया नायिका- जिसकी अवस्था और कामभावना नवीन होती है, जो रतिक्रीडा में झिझकने वाली (वामा विपरीत, प्रतिकूल, विमुख) और क्रोध करने में भी कोमल होती है, जो रतिचेष्टा में गूढ़ और मनोहर लज्जा करती है, प्रियतम (नायक) के (अन्य स्त्री के साथ सम्भोग के द्वारा) किये गये ( अपने प्रति) अपराध को रोती हुई देखती रहती है तथा (इस अपराध के विषय में) वह प्रिय अथवा अप्रिय कुछ भी नहीं बोलती, वह मुग्धा (स्वकीया नायिका) कहलाती है।।९७-९८।। वयसा मुग्धा यथा ममैव उल्लोलितं हिमकरे निबिडान्धकारमुत्तेजितं विषमसायकबाणयुग्मम् । उन्मज्जितं कनककोरकयुग्ममस्या मुल्लासिता च गगने तनुवीचिरेखा ।।38।। वयोमुग्धा जैसे शिङ्गभूपाल का ही इस (नायिका) के चन्द्रमा (मुख) पर चञ्चल घना अन्धकार (काले बाल) लटक रहे हैं) और कठिन पङ्खयुक्त दो बाण (दोनों आँखें) तीखी हो गयी है। सुवर्ण के समान दो कलियाँ (गोरे स्तन) बाहर निकल गये हैं तथा आकाश (पेट) पर अत्यन्त पतली तरङ्गों (त्रिवली) की रेखा (पति) हो गयी है।।38।। नवकामा यथा ममैव बाला प्रसाधनविधौ निदधाति चित्तं दत्तादरा परिणये मणिपुत्रिकाणाम् । आलज्जते निजसखीजनमन्दहासै रालक्ष्यते तदिह भावनवावतारः ।।39।। नवकामा जैसे शिङ्गभूपाल का ही षोडशी रमणी प्रसाधन (सजावट) के कार्यों में मन लगाती है, मणिपुत्रिकाओं (गुड्डेगुड्डियों) के विवाह (के खेल) में आदर देती है, अपनी सखियों की मन्द हँसी से लज्जित हो जाती है। इस प्रकार उसमें (काम-विषयक) नये भाव का अवतरण (उदय) हो रहा है।।39।। रतौ वामत्वं यथा ममैव आलोक्य हारमणिबिम्बितमात्मनाथ
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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