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________________ [ १६ ] रसार्णवसुधाकरः यथा- (हनुमन्नाटके १३.३५) - एकस्यैवोपकारस्य प्राणान् दास्यामि ते कपे ! प्रत्यहं क्रियमाणस्य शेषस्य ऋणिनो वयम् ॥19॥ कृतज्ञता - किये गये उपकार को याद रखना कृतज्ञता कहलाता है ।। ६८ पू.। जैसे (हनुमन्नाटक १३.३५ मे) - श्री राम हनुमान् से कह रहे हैं कि हे कपि ! तुम्हारे एक ही उपकार के बदले मैं अपने प्राणों को दे दूँगा । (तुम्हारे द्वारा ) प्रतिदिन किये गये शेष उपकार के प्रति हम लोग (सदा) ऋणी बने रहेंगे | 19 || अथ नयज्ञत्वम् सामाद्युपायचातुर्यं नयज्ञत्वमुदाहृतम् ।।६८।। यथा (किरातार्जुनीये १.१५) अनारतं तेन पदेषु लम्भिता विभज्य सम्यग् विनियोगसत्क्रियाः । फलन्त्युपायाः परिबृंहितायतीसङ्घर्षमिवार्थसम्पदः ।।10।। रुपेत्य नयज्ञता - सामादि (साम, दाम, दण्ड और विभेद ) चार प्रकार की नीतियों में निपुण होना नयज्ञता कहलाता है ।। ६८उ. ।। जैसे (किरातार्जुनीय १.१५ मे) - उस दुर्योधन के द्वारा उचित स्थानों में समुचित विभाग करके प्रयुक्त किये गये और उचित प्रयोग (विनियोग) द्वारा समादृत (अनुग्रहीत) हुए उपाय(साम, दाम, दण्ड और भेद) मानो परस्पर स्पर्धाभाव को प्राप्त हुए से भविष्य में वृद्धि को प्राप्त होने वाली (स्थिर भविष्य वाली) धन-सम्पत्तियों को निरन्तर उत्पन्न करते हैं ।।10। अथ शुचिता अन्तःकरणशुद्धिर्या शुचिता सा प्रकीर्तिता । यथा ( रघुवंशे १६.८) का त्वं शुभे ! कस्य परिग्रहो वा किं वा मदभ्यागमकारणं ते । आचक्ष्व मत्वा वशिनां रघूणां मनः परस्त्रीविमुखप्रवृत्तिः ।।11।। शुचिता - अन्तःकरण की पवित्रता शुचिता कहलाती है ॥ ६९ ॥
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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