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________________ [xliii] समय दोनों के हृदय में परस्पर अनुराग अङ्कुरित हो गया। सत्यभामा को कृष्ण और कुवलयावली का प्रेम ज्ञात हो गया और उसने इस बात को रुक्मिणी से बता दिया। रुक्मिणी क्रोधित होकर कुवलयावली को अपने प्रासाद में बन्दी बना लिया। बन्दीगृह से कोई दानव कुवलयावली को चुरा लिया। कृष्ण ने उस दुष्ट दानव से उसे मुक्त कराया और उसी समय स्वयं प्रकट होकर रुक्मिणी को कुवलायावली का रहस्य बतलाया। रहस्य को जान कर स्वयं रुक्मिणी ने कुवलयावली को कृष्ण के लिए उपहार के रूप में सौंप दिया। 5. कन्दर्पसम्भव- कन्दर्पसम्भव का अर्थ है- कामदेव का जन्म। इस ग्रन्थ का उल्लेख स्वयं शिङ्गभूपाल ने रसार्णवसुधाकर में किया है। 2.112 में स्नेह के लक्षण को लक्षित करके उन्होंने कन्दर्पसम्भव से उदाहरण को उद्धृत किया है और यह भी स्पष्ट किया है कि यह मेरी रचना है। रसार्णवसुधाकर स्वरूप- रसार्णवसुधाकर शिङ्गभूपालकृत नाट्यशास्त्र-विषयक ग्रन्थ है। कारिकारूप में उपनिबद्ध यह ग्रन्थ तीन विलासों में विभक्त है। इसके प्रथम विलास में 324, द्वितीय विलास में 365 और तृतीय विलास में 350 कारिकाएँ इस प्रकार सम्पूर्ण ग्रन्थ में कुल 1029 कारिकाएँ हैं। आड्यार लाइब्रेरी सेन्टर से टी. वेंकटाचार्य द्वारा सम्पादित संस्करण में द्वितीय विलास के प्रारम्भ में दो तथा तृतीय विलास के प्रारम्भ में एक अतिरित्क कारिका है। इस प्रकार इस संस्करण में कुल 1032 कारिकाएँ हैं। इन कारिकाओं के अतिरिक्त बीच-बीच में विषयवस्तु को स्पष्ट करने के लिए तथा अन्य पूर्ववर्ती आचार्यों के मतों की समीक्षा करने के लिए गद्यात्मक वृत्ति भी जोड़ी गयी है। ग्रन्थ के प्रथम विलास के प्रारम्भ में ग्रन्थ की निर्विघ्न समाप्ति के लिए किये गये मङ्गलाचरण के अनन्तर शिङ्गभूपाल ने अपने वंशवृक्ष का परिचय दिया है। पुनः ग्रन्थ की प्रवृत्ति का कारण, नाट्यवेद की उत्पत्ति, नाट्य और रस का लक्षण, विभाव में आलम्बन विभाव के अन्तर्गत नायक के गुण तथा भेद शृङ्गारनायक के सहायकों का विवेचन हुआ है। इसी सन्दर्भ में नायिकाओं के गुण तथा भेद का विस्तार पूर्वक सोदाहरण विवेचन किया गया है। तत्पश्चात् श्रृङ्गार रस के उद्दीपन- विभाव, अनुभाव तथा उसके चित्तज, गात्रज, • वाग्ज और बुद्धिज-इन चार भेदों का निरूपण हुआ है। बुद्धिज अनुभाव के तीन प्रकारोंरीति, वृत्ति और प्रवृत्ति तथा आठ सात्त्विकभावों का विवेचन हुआ है। द्वितीय विलास में तैंतीस व्यभिचारिभावों, उनके भेदों और उनमें होने वाली
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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