SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 452
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीयो विलासः [४०१] जानन्ति ते किमपि तान् प्रति नैष यत्नः । उत्पत्स्यते मम तु कोऽपि समानधर्मा कालो ह्ययं निरवधिर्विपुला च पृथ्वी ।।610।। अत्र जानन्ति ते किमपीति परापक्दाद् मम तु कोऽपि समानधर्मत्यात्मोत्कर्षवचनाच्च भवभूतेरुद्धतत्वम्। जैसे मालतीमाधव (१.६) में जो कोई मेरी इस (कृति) पर हमारी अवज्ञा को प्रकाशित करते हैं वे अज्ञान या मात्सर्य से कल्पित कुछ अनिर्वचनीय रहस्य को जानते हैं, ऐसे अज्ञानी अथवा मत्सरी लोगों के लिए मेरी यह कृति नहीं हैं परन्तु मेरे समान गुणवाला कोई पुरुष उत्पन्न होगा, क्योंकि यह काल सीमा रहित है और पृथ्वी भी विस्तीर्ण है।।610।। 'कुछ अनिवर्चनीय को जानते हैं इस दूसरे की निन्दा से 'मेरे समान गुण वाला' इस आत्मोत्कर्ष के कथन के कारण भवभूति की उद्धतता है। अथ प्रौढःयथोचितनिजोत्कर्षवादी प्रौढ इतीरितः। (३) प्रौढ़ कवि- अपने यथोचित उत्कर्ष को कहने वाला कवि प्रौढ़ कहलाता है।।१५०उ.।। यथा करुणाकन्दले कविर्भारद्वाजो जगदवधिजाग्रनिजयशा रसश्रेणीमर्मव्यवहरणहेवाकरसिकः । यदीयानां वाचां रसिकहृदयोल्लासनविधा वमन्दानन्दात्मा परिणमति सन्दर्भमहिमा ।।611।। __ अत्र रसप्रौढिसन्दर्भप्रसादयोटिकनिर्माणोचितयोरेव कथनानिजोत्कर्ष प्रकटयन्नयं कविः प्रौढ इत्युच्यते। जैसे करुणाकन्दल में सभी रसों के आन्तरिक व्यवहार को प्रयोग करने की उत्कट इच्छा वाले रसिक वे कवि भारद्वाज अपने यश के कारण (द्वारा) उस समय तक जागृत (जीवित) रहेंगे। जब तक यह संसार रहेगा। जिनकी वाणी (शब्द के) निबन्ध का कौशल (काव्य कौशल) रसिकों के हृदय को उल्लसित करने की क्रिया में आत्मा को अत्यधिक आनन्दित कर देता है।।611।। यहाँ नाटक- निर्माण के लिए उचित रस की प्रौढ़ता और प्रसादादि (गुणों) के कथन से अपने उत्कर्ष को प्रकट करता हुआ यह प्रौढ़ कवि है। युक्त्या निजोत्कर्षवादी प्रौढ इत्यपरैः स्मृतः ।।१५०।।
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy