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________________ [xxxix] इसी प्रकार शिङ्गभूपाल के अन्य स्त्री-विषयक चित्रित ये स्थल अति मार्मिक, सरस और स्वाभाविक हैं- आकीर्णधर्मजल...(पृ.३५) नामव्यतिक्रम.....(पृ.२५८) कान्ते सागसि.....(पृ.३४) निःश्वासोल्लसदुन्नतस्तनतट.....(पृ.३७) केलिगृहं ललित-शयनं....(पृ.४६) निशङ्क नितरां.....(पृ.३६) सलीलं धम्मिल्ले.....(पृ.५२) आकर्ण्य.....(पृ.७७) उन्मीलननवमालतीपरिमल.....(पृ.२०८) अश्रान्तकण्टकोद्.....(पृ.२१६) इत्यादि। समालोचकत्त्व- सहृदय और सरस कवित्व के साथ-साथ शिङ्गभूपाल में निष्पक्ष समालोचना की कुशलता भी विद्यमान है। इन्होंने भोज, रुद्रट, शारदातनय, धनञ्जय इत्यादि प्रसिद्ध आचार्यों के मतों की एक ओर तो यथास्थान समालोचना करते हुए उनके मतों का खण्डन करके अपने मत को प्रतिष्ठापित किया है तथा अन्यत्र समुचित स्थलों पर उनके मतों के प्रति श्रद्धाभाव प्रदर्शित करते हुए अङ्गीकार भी किया है। जैसे2.159 में भोज द्वारा कहे गये गर्व, स्नेह, धृति और मति नामक स्थायीभाव और उनसे होने वाले उद्धत, प्रेय, शान्त और उदात्त रस के लक्षण में दिये गये उदाहरणों और उनकी भोजकृत व्याख्या को उद्धृत करके खण्डन करते हुए उनका अपने अनुसार समुचित समाधान दिया है। इसी प्रकार वृत्तियों के निरूपण करने के प्रसङ्ग में भारती, सात्वती, आरभटी तथा कैशिकी-इन चार वृत्तियों के अतिरिक्त भोज द्वारा शृङ्गारप्रकाश में निरूपित इस वृत्तियों के मिश्रण से निष्पन्न मिश्रा नामक पाँचवी वृत्ति का 1.286 में आचार्य भरत द्वारा वृत्तियों के प्रयोग का रस-विशेष से सम्बन्ध निरूपित करने के कारण खण्डन किया है और - उसके मिश्रण से निष्पन्न मिश्रा वृत्ति के प्रति अपनी उदासीनता को प्रकट किया है। जुगुप्सा नामक व्यभिचारीभाव के प्रसङ्ग में अहृद्यपदार्थों के दर्शन और श्रवण से उत्पन्न होने वाली जुगुप्सा के प्रसङ्ग में धनञ्जय द्वारा दशरूपक में निरूपित घृणा और शुद्धा नामक जुगुप्सा के दो भेदों का 2.150 में श्रवण से उत्पन्न जुगुप्सा में ही अन्तर्भाव माना है। इसी प्रकार किसी अज्ञात नाम वाले आचार्य द्वारा प्रतिपादित ऐश्वर्यादि से उत्पन्न मद को इन्होनें 2.124 में गर्व का भेद माना है। आचार्य धनञ्जय ने दशरूपक में सन्ध्यङ्गों में सन्ध्यन्तरों का अन्तर्भाव किया है किन्तु शिङ्गभूपाल ने सन्ध्यन्तरों के सन्ध्यङ्गों में अन्तर्भाव को निरासित करके उनका अलग-अलग निरूपण किया है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि शिङ्गभूपाल एक प्रतापी राजा तथा सरस कवि होने के साथ ही साथ एक सफल आलोचक भी थे। शिङ्गभूपाल का काल- शिङ्गभूपाल के समय-सीमा-निर्धारण की दृष्टि से रसार्णवसुधाकर में उदधृत ग्रन्थों के कर्ताओं तथा अन्य आचार्यों द्वारा उद्धृत शिङ्गभूपाल
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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