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________________ [३७४] रसार्णवसुधाकरः हे आदरणीये! जो पुरुवंशोत्पन्न राजा (दुष्यन्त) के द्वारा धर्माधिकारी नियुक्त किया गया है, वह मैं निर्विघ्न (तपस्वियों की धार्मिक) क्रियाओं को जानने के लिए इस तपोवन में आया हूँ" यहाँ से लेकर "शकुन्तला- तुम दोनों हट जाओ। (तुम दोनों) कुछ मन में रख कर (ऐसा) कह रही हो। तुम दोनों की बातें नहीं सुनूँगी" यहाँ तक साभिप्राय गूढकथन से यह उदाहरण है। अथ शोभा शोभा प्रभावप्राकट्यं यूनोरन्योन्यमुच्यते । (६) शोभा- युवकों (नायक-नायिका) का परस्पर एक दूसरे का प्रभाव प्रकट करना शोभा कहलाता है।।१०४ पू.॥ यथा रत्नावल्यां (२/१६ पद्यात्पूर्वम्) सागरिका- (राजानं दृष्ट्वा सहर्ष ससाध्वसं सकम्मं च स्वगतम् ) एणं पेक्खिअ अदिसद्धसेण ण सक्कणोमि पदादो पदं वि गन्तुं। ता किं वा एत्य करिस्स। (एनं प्रेक्ष्यं अतिसा-ध्वसेन न शक्नोमि पदात्पदमपि गन्तुम्। तत् किं वात्र करिष्यामि)। विदूषकः- (सागरिकां दृष्ट्वा) अहो भो वअस्स अच्चरिअं अच्चरिय। ईरिसं रूपं माणुसलोए ण पुण दीसदि! तह तक्केमि पआवरणेवि इमं णिम्माअ पुणो पुणो विहाओ संवुत्तेत्ति। (अहो भो वयस्य! आधर्यमाश्चर्यम्। ईदृशं कन्यारत्नं मनुष्यलोके न पुनर्दश्यते। तत्तयामि प्रजापतेरप्येतन्निर्माय विस्मय समुपन्नः।) राजा-सखे! ममाप्येतदेव मनसि वर्तते।' इत्यत्र सागरिकावत्सराजयोरन्योऽन्यनिर्वनिन रूपातिशयप्रकटनं शोभा। जैसे रत्नावली (२/१५ पद्य से पूर्व में) "सागरिका- (राजा को देख कर) हाय हाय, इन्हें देखकर अत्यन्त भय के कारण मुझसे तो एक कदम भी नहीं चला जाता! तो अब मैं क्या करूँ। विदूषक- (सागरिका को देखकर) हे मित्र! अहा आश्चर्य है आश्चर्य है। ऐसा कन्यारत्न मनुष्य लोक में नहीं दिखलायी पड़ता। मैं समझता हूँ कि विधाता को भी इन्हें बना कर विस्मय हुआ होगा। राजा- यही बात मेरे भी मन में आ रही है।" यहाँ सागरिका और वत्सराज (उदयन) का परस्पर एक दूसरे का वर्णन करने के कारण सौन्दर्य की अधिकता का प्रकटन होने से शोभा है। अथ संशय: अनिश्चयान्तं यद् वाक्यं संशयः स निगद्यते ।।१०४।। (७) संशय- अनिश्चय में अन्त होने वाला कथन संशय कहलाता है।।१०४३.॥
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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