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________________ [ ३७०। रसार्णवसुधाकरः चित्र है ऐसा' स्मरण करा देने वाले तुम्हारे (विक्षक के ) द्वारा मेरी प्रिया (शकुन्तला) फिर से चित्र बना दी गयी है।।6.21)572।। यहाँ तक स्पष्ट चित्र है। भावकल्पनयाङ्गानां मुखप्रमुखसन्धिषु ।।१२।। प्रत्येकं नियत्वेन योज्या तत्रैव कल्पना । सन्ध्यन्तराणां विज्ञेयः प्रयोगस्त्वविभागतः ।।९३।। तथैव दर्शनादेषामनयत्येन सन्धिषु । तदेषामविचारेण कथितो दशरूपके ।।९४।। सन्ध्यन्तराणामङ्गेषु नान्तर्भावो मतो मम । सामाद्युपायदक्षेण सन्ध्यादिगुणशोभिना ।।९५।। नियूढं शिङ्गभूपेन सन्थ्यन्तरनिरूपणम् । सन्ध्यङ्गों और सन्ध्यन्तरों के प्रयोग में मतभेद- भावकल्पना के अनुसार मुख इत्यादि सन्धियों में संन्धियों के अङ्गों की नियत योजनीय कल्पना करनी चाहिए। वही विभाग के बिना सन्ध्यन्तरों का प्रयोग भी समझना चाहिए। उन सन्ध्यन्तरों पर विचार किये बिना ही सन्धियों (के मध्य) में (सन्ध्यन्तरों के) दिखलायीं पड़ने के कारण दशरूपक में (धनञ्जय ने) अनियतता- पूर्वक (सन्ध्यन्तरों को सन्धियों में ही) कहा है।(९२-९४३.) सन्ध्यन्तरों का (सन्धियों के) अङ्गों में अन्तर्भाव नहीं होता- ऐसा मेरा (शिङ्गभूपाल का) मत है। इसीलिए साम इत्यादि उपायों के प्रयोग में कुशल और सन्धि इत्यादि गुणों से सुशोभित शिङ्गभूपाल के द्वारा पूर्ण रूप से सन्ध्यन्तरों का निरूपण किया गया है।।९४-९६पू.।। भूषणानि एवमङ्गरुपाङ्गैश्च सुश्लिष्टं रूपकश्रियः ।।९६।। शरीरं वस्त्वलकुर्यात् षट्त्रिंशद्भूषणैः स्फुटम् । भूषण- इस प्रकार अङ्गों और उपाङ्गों से रूपक की शोभा के सुश्लिष्ट शरीर रूपी कथावस्तु को छत्तीस भूषणों से स्पष्ट रूप से अलंकृत करना चाहिए।(९६उ.-९७पू.)। भूषणाक्षरसङ्घातौ हेतुः प्राप्तिरुदाहृतिः ।।९७।। शोभा संशयदृष्टान्तावभिप्रायो निदर्शनम् । सिद्धिप्रसिद्धी दक्षिण्यमापत्तिर्विशेषणम् ।।९८।। पदोच्चयस्तुल्यतर्को विचारस्तद्विपर्ययः । गुणातिपातोऽतिशयो निरुक्तं गुणकीर्तनम् ।।९९।। गर्हणानुनयो भ्रंशो लेशक्षोभी मनोरथः ।
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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