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________________ [३३२] रसार्णवसुधाकरः (6) सङ्ग्रह- साम दान और अर्थ (प्रिय वचन) का संयोग (संग्रह) कहलाता है।।५४पू.।। यथा- तत्रैव (बालरामायणे) सप्तमाङ्केसमुद्रः (साभ्यर्थनम् ) इन्दुर्लक्ष्मीरमृतमदिरे कौस्तुभः पारिजातः स्वार्मातङ्गः सुरयुवतयो, देव धन्वन्तरिश्च । मन्थाम्रडैः स्मरसि तदिदं पूर्वमेव त्वयात्तं सम्प्रत्यब्धि शृणु जलधनस्त्वां प्रपन्नः प्रशाधि ।। (7.36)532।। रामः- (सगौरवम्) भगवन् रत्नाकर! नमस्ते" इत्युपक्रम्य "समुद्रः-यथाह सप्तमो वैकुण्ठावतारः" (७/४४ पद्यात्पूर्वम्) इत्यन्तेन समुद्ररामचन्द्रयोः परस्परप्रियवचन-सङ्ग्रहात्सड्ग्रहः । जैसे वही (बालरामायण के सप्तम अङ्क में)"समुद्र- (अभ्यर्थनापूर्वक) हे देव! क्या आप को याद है कि आपने पहले ही मथ कर चन्द्रमा, लक्ष्मी, अमृत, मदिरा, कौस्तुभ, पारिजात, ऐरावत, अप्सराएँ तथा धन्वन्तरी को ले लिया था। अब तो समुद्र में मात्र जल ही है। मैं आप की शरण में आया है, आज्ञा दीजिए। (7.46)।।533 ।। राम- (सम्मानपूर्वक) भगवन् समुद्र! आप को नमस्कार है" यहाँ से लेकर "समुद्र- विष्णु के सातवें अवतार की जैसी आज्ञा हो (७.४४ पद्य से पूर्व) तक समुद्र और रामचन्द्र के परस्पर प्रियवचन का सङ्ग्रह होने से सङ्ग्रह है। अथानुमानम् अर्थस्याभ्यूहनं लिङ्गादनुमानं प्रचक्षते ।।५४।। अनुमान- लिङ्ग (चिह्न) से कार्य का ऊहापोह द्वारा निश्चय करना अनुमान कहलाता है।।५४उ.।। यथा तत्रैव (बालरामायणे (७/२१ पद्यात्पूर्वम्) "प्रतीहारी- (समन्तादवलोक्य) कथमयमन्यादश इव.लक्ष्यतेऽम्बुराशिः। बन्दी(सचमत्कारं पुरोऽवलोक्य) पश्य! विलीयमानजलमानुषमिथुनमत्यर्थकदर्यमानशक्खिनीयूथम्" इत्युपक्रम्य प्रतीहारी- (सवितर्कम्) त्रैयक्षात्किस्विदक्ष्णः क्षयसमयशिखीनिर्गतश्चञ्चदर्चिः किंस्विद्भित्वार्णवाास्युपरि परिणतः सर्वतोऽप्यौर्वबह्निः । किंस्वित्कालाग्निरुद्रः स्थगयसि जगतीमेष पातालमूला
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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