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________________ [ ३३०] रसार्णवसुधाकरः हृदयम् यदि वत्सानां रामभद्रभरतलक्ष्मणशत्रुघ्नानां वधूनां च सीतामाण्डव्युर्मिलाश्रुतिकीर्तिनां दर्शनेन निर्वासयिष्यति। दशरथ:- (अयि कैकेयि!) एतच्छ्रान्तविचित्रचत्वरपथं विश्रान्तवैतालिकश्लाघाश्लोकमगुञ्जितम मुरजं विध्वस्तगीतध्वनिः । व्यावृत्ताध्ययनं निवृत्तसुकविक्रीडासमस्यं नम द्विद्वद्वादकथं कथं पुरमिदं मौनव्रते वर्तते ।।(6/12)531।। कैकेयीदशरथयोरयोध्याविषयविषादवितर्कविन्यासाद् रूपम्। जैसे वहीं (बालरामायण के) षष्ठ अङ्क में "कैकेयी- (उद्वेगपूर्वक) आप सरयू को प्रणाम करती हूँ। जो सरयू पहले नयनामृत का ग्रास थी वही अब हालाकृत विष का ग्रास प्रातीत होती है। क्योंकि अयोध्या के दर्शन से मेरा हृदय अकारण व्याकुल हो रहा है- यह व्याकुलता राम, भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न- इन पुत्रों तथा सीता, माण्डवी, उर्मिला और श्रुतिकीर्ति- इन पुत्रवधुओं के दर्शन से जाएगी। दशरथ- हे कैकेयी!" यह चौराहा विचित्र रूप से थका हुआ है, यहाँ वैतालिकों का प्रशंसा स्वर, मुरज बाजा, गीत ध्वनि, अध्ययन, सुकवियों की समस्यापूर्ति, विद्वानों का वाद-विवाद बन्द हो गया है तथा यह मौनता क्यों है।।''(6.12) ।।531।। यहाँ कैकेयी और दशरथ का अयोध्या-विषयक विषाद के वितर्क का विन्यास होने से रूप है। अथोदाहरणम्___ सोत्कर्षवचनं यत्तु तदुदाहरणं मतम् । (4) उदाहरण- जो उत्कर्ष युक्त कथन होता है, वह उदाहरण कहलाता है।।५३पू.॥ यथा तत्रैव (बालरामायणे) असमपराक्रमनाम्नि सप्तमेऽङ्के"विभीषणः- सखेः सुप्रीव! अतिशशाहशेखरमिदमाचेष्टितं रामदेवस्य। यदनेननिर्वाणं जलपानपीडनबलैर्यस्मिन् युगान्तानलैर्यस्याभाति दुकूलमुर्मुरमृदुः क्रोडे शिखी बाडवः । तस्याप्यस्य कृशानुसङ्क्रमकृतज्योतिः शिखण्डैः शरै दत्तश्चण्डदवाग्निडम्बरविधिदेवस्य वारांनिधेः । ।(7.32)532।। इत्युपक्रम्य "समुद्रः- तर्हि बालरामायणं राममेवोपसमिः । न हि राकामृगाइमन्तरेण चन्द्रमणेरानन्दजलनिष्यन्दः" (७/३६ पद्यात्पूर्वम्) इत्यन्तेन समुद्रक्षोभकरामचन्द्रोत्साहोत्कर्षकथनादुदाहरणम्।
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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