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________________ तृतीयो विलासः [३१५] लोकोत्तरं चरितमर्पयति प्रतिष्ठां पुसां कुलं न हि निमित्तमुदारतायाः । वातापितापनमुनेः कलशात्प्रसूति लीलायितं पुनरमुष्य समुद्रपानम् ।।(2.51)511।। इत्यन्तेन गूढशङ्करधनुरषिक्षेपोद्घाटनाद् वा लोकोत्तरचरितसामान्यवर्णनेन तिरोहितरामचन्द्रोत्साहोद्घाटनाद्वा उद्भेदः। जैसे वहीं (बालरामायण के) द्वितीय अङ्क में"रावण- त्रैयम्क: परशुरेव निसर्गचण्ड (२.३९) इत्यादि पढ़ता है। जामदग्न्य- अपकार करते हुए भी तुमने महान् उपकार कर दिया जो मुझे यह स्मरण करा दिया है (२.४४ पद्य के पूर्व) । यहाँ से लेकर "लोकोत्तर चरित्र ही प्रतिष्ठा देता है। पुरुषों का कुल उन्नति का निमित्त नहीं। वातापि को तपाने वाले अगस्त्य मुनि का जन्म कलश से हुआ है किन्तु उनकी लीला है अगाध समुद्र को पी जाना"(2.51)।।511।। यहाँ तक गम्भीर शंकर के धनुष के अधिक्षेप (दोषारोपण) का उद्घाटन होने अथवा लोकोत्तर चरित का सामान्य वर्णन होने से अथवा छिपे हुए रामचन्द्र के उत्साह का उद्घाटन होने के कारण उद्भेद है। अथ भेदः बीजस्योद्भेदनं भेदो यद्वा सङ्घातभेदनम् ।।३६।। (11) भेद-बीज का अभिर्भाव होना अथवा सङ्घ में फूट डालना भेद कहलाता है।।३६उ.।। यथा तत्रैव (बालरामायणे द्वितीयाङ्के) "रावण:- (विलोक्य) अथ याचितपरशुना परशुरामेण किमभिहितमासीत्। मायामयः- त्रैलोक्यमाणिक्यरामोदन्तम् आकर्णयतु स्वामी पौलस्त्यः प्रणयेन याचत इति श्रुत्वा मनो मोदते देयो नैष हरप्रसादपरशुस्तेनाधिकं ताम्यति । तद्वाच्यः स दशाननो मम गिरा दत्ता द्विजेभ्यो मही तुभ्यं ब्रूहि रसातलत्रिदिवयोनिर्जित्य किं दीयताम् ।।(2/20)512।। रावणः - "कदा नु खलु परशुरामो रसातलत्रिदियोर्जेता दाता च संवृत्तः। पुनः प्रतिगृहीता च। ततस्त्वया किमसौ प्रत्युक्तः।" इत्युत्क्रम्य "मायामयः- देव, प्रकृतिरोषणो रेणुकासुतः। तत्तमेवागतमहमुरेक्षेः। रावण:-प्रियं नः।" (२.२४ पद्यात्पूर्वम्)
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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