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________________ तृतीयो विलासः [३१३] अथ समाधानम् - बीजस्य पुनराधानं समाधानमिहोच्यते ।।३५।। यथा तत्रैव-(बालरामायणे द्वितीयाङ्के) 'भिङ्गिरिटि:- युद्धरुचे! मा निर्भरं संरभस्वा' इत्युपक्रम्य "अयोध्यां गत्वा परं रामरावणीयं योजयिष्यामि (२.१६ पद्यादनन्तरम् ) इत्यन्तेन राघवबीजस्य नारदेन पुनराधानात् समाधानम् । (7) समाधान- बीज का पुन: आधान (उपक्षिप्त बीज का पुन: अधिक स्पष्ट रूप से उपादान) समाधान (सम्यक् रूप से आधान) कहलाता है।।३५उ.।। जैसे- वहीं (बाल रामायण के द्वितीय अङ्क में) "भृङ्गिरिटि- हे! एक मात्र युद्ध में रुचि रखने वाले (नारद)! ऐसा उत्साह मत करो' यहाँ से लेकर 'अयोध्या में जाकर राम और रावण के युद्ध की योजना करूँ" तक राम के बीज का नारद द्वारा पुन: आधान करने के कारण समाधान है। अथ विधानम् सुखदुःखकरं यत्तु तद् विधानं बुधा विदुः । . यथा तत्रैव (बालरामायणे) प्रथमाथे 'सीता-(ससाध्वसौत्सुक्यम्) अम्मो रक्खसो त्ति सुणिअ सच्चं सज्झसकोदहलाणं मज्झे वट्टामि।(अंहो राक्षस इति श्रुत्वा सत्यं साध्वसकौतूहलयोरन्तरे वते)' इत्युपक्रम्य 'सीता-तादसदाणंदमिस्साणं अन्तरे उवविसिस्स' (तातशतानन्दमिश्राणामन्तरं उपवेक्ष्यामि।। (१.४२ पद्यात्पूर्वम्।) इत्यन्तेन सीतया अदृष्टपूर्वराक्षसदर्शनेन सुखदुःखव्यतिकराख्यानाद् विधानम्। (8) विधान- जो सुख और दुःख दोनों को उत्पन्न करने वाला है उसको प्राज्ञों ने विधान कहा है।।३६पू.॥ जैसे- वहीं (बालरामायण के) प्रथम अङ्क में "सीता- (भय और उल्लास के साथ) अहा! राक्षस सुन कर भय और उत्साह के बीच में हूँ" से लेकर "सीता- पिताजी (जनक) और शतानन्द के बीच में बैलूंगी''(१.४२ से पूर्व) तक सीता द्वारा कभी न देखे गये राक्षस के देखने से सुख और दुःख के उत्पन्न होने के ख्यापन होने का विधान है। अथ परिभावना श्लाघ्यैश्चित्तचमत्कारो गुणाद्यैः परिभावना ।।३६।। यथा तत्रैवरावण:- (सौत्सुक्यं विलोक्य स्वगतम्) अहो त्रिभुवनातिशायि मकरध्वजसञ्जीवनं
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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