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________________ तृतीयो विलासः (१) बीज - जो (प्रारम्भ में) सूक्ष्म रूप से सङ्केतित होता है और आगे चल कर अनेक प्रकार से विस्तृत हो जाता है तथा कार्य (फल) का निमित्त (कारण) होता है, उसको आचार्यों ने बीज कहा है ।। ८उ. - ९पू. ।। उप्तं बीजं तरोर्यद्वदङ्कुरादिप्रभेदतः ।। ९ ।। फलाय कल्पते तद्वन्नायकादिविभेदतः । फलायै भवेत् तस्माद् बीजमित्यभिधीयते ।। १० ।। जिस प्रकार बोया गया बीज (पहले) अंकुर (पुनः) पेड़ आदि के भेद से फल की प्राप्ति के लिए होता है उसी प्रकार नायक इत्यादि के भेद से नाट्य की फल प्राप्ति (नाट्य के निष्कर्ष तक पहुँचने के लिए ) (उपयोगी कथावस्तु) बीज कहलाती है ।। ९उ.१०॥ [ २९९ ] यथा - बालरामायणे प्रथमद्वितीययोः कल्पिते मुखसन्धौ स्वल्पो रामोत्साहो बीजमित्युच्यते । जैसे - बालरामायण के प्रथम और द्वितीय अङ्क में कल्पित मुखसन्धि में राम का स्वल्प उत्साह 'बीज' है। अथ बिन्दुः फले प्रधाने बीजस्य प्रसङ्गोक्तैः फलान्तरैः । विच्छिन्ने यद्विच्छेदकारणं बिन्दुरिष्यते ।। ११।। जलबिन्दुर्यथा सिञ्चंस्तरुमूलं फलाय हि । तथैवायं मुहुः क्षिप्तो बिन्दुरित्यभिधीयते ।। १२ ।। यथा- तत्रैव तृतीयचतुर्थाङ्गयोः कल्पिते प्रतिमुखसन्धौ विक्षिप्ते रावण-विरोधमूलं सीतापरिग्रहो बिन्दुरित्युच्यते । (२) बिन्दु - बीज के अन्तर्गत प्रसंगवशात् कही गयी ( प्रयोग की गयी ) अन्य फलप्रधान कथा के समाप्त हो जाने पर मुख्यकथा की निरन्तरता को बनाये रखने के कारण (उक्त कथावस्तु) बिन्दु कहलाती है। जिस प्रकार फल प्राप्ति के लिए बीज - वपन से बाद उसकी वृद्धि के लिए बार-बार जल से सींचा जाता है उसी प्रकार नाटक के अन्तर्गत मुख्यकथा की निरन्तरता को बनाये रखने के लिए बिन्दु का प्रयोग किया जाता है। जैसे- वहीं बालरामायण के तृतीय चतुर्थ अङ्क में आगामी युद्ध के लिए रावण के विरोध का मूलकारण सीताहरण की कल्पना करना बिन्दु है । अथ पताका यत्प्रधानोपकरणप्रसङ्गात् स्वार्थमृच्छति । सा स्यात्पताका सुग्रीवमकरन्दादिवृत्तवत् ।। १३ ।। -
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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