SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 33
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [xxviii] भेदकर शरीर में प्रवेश करके प्राणों को हर लेता है- सोऽयमिषोरिव दीर्घदीर्घतरोऽभिधाव्यापारः (काव्यप्रकाश)। शकुक- अभिनवगुप्त ने नाट्यविधा के विभिन्न विषयों पर शक के मतों को अनेक स्थलों पर निर्दिष्ट किया है। कल्हड़ की राजतरिङ्गिणी में कश्मीर के शासक अजितापीड (813 ई.) के आश्रित पण्डितों में शङ्कक का उल्लेख मिलता है। इन्होंने भी भरत के नाट्यशास्त्र पर टीका लिखा है। शार्ङ्गधरपद्धति और सूक्तमुक्तावली के अनुसार ये मयूर के पुत्र थे। हर्ष के आश्रित मयूर का समय सातवीं शताब्दी का पूर्वार्ध है अतः इन्हें सातवीं शती के उत्तरार्ध में होना चाहिए। किन्तु विद्वानों ने इस पर आपत्ति करके राजतरिङ्गिणी के आधार पर इनका समय नवीं शती माना है। रससूत्र पर की गयी इनकी व्याख्या अनुमितिवाद के नाम से प्रसिद्ध है। इन्होंने भट्टलोल्लट के अनुमितिवाद की समालोचना करके अपने मत को प्रतिष्ठापित करने का प्रयत्न किया है। इनके अनुसार रस अनुमितिगम्य है। विभावादि साधन और रस साध्य है। इनमें अनुमाप्य और अनुमापक भाव-सम्बन्ध है। इसके अनुसार चित्रतुरगन्याय से रस के अनुमान द्वारा सामाजिकों को रसानुभूति होती है। भट्टनायक- भट्टनायक कश्मीर के शासक शङ्करवर्मन (883 से 902) के समकालीन थे। अतः इनका समय अभिनवगुप्त से कुछ ही पूर्व रहा होगा। भट्टनायक अभिव्यक्तिवाद के साथ-साथ उत्पत्ति तथा प्रतीतिवाद के सिद्धान्तों का भी खण्डन किया। ये ध्वनिविरोधी आचार्य थे। इन्होंने अपने ग्रन्थ 'हृदयदर्पण' में ध्वन्यालोक के सिद्धान्तों का खण्डन किया है जो सम्प्रति उपलब्ध नहीं है। इस ग्रन्थ का उल्लेख जयरथ महिमभट्ट और रुय्यक ने भी किया है। भट्टलोल्लट और शङ्कक की भॉति ये भी अभिधावादी थे किन्तु इन्होंने इसके अतिरिक्त दो और शब्द की शक्तियों को माना है- (1) भावकत्व और भोजकत्व। भरत के रस के विषय में इनका सिद्धान्त भुक्तिवाद नाम से प्रसिद्ध है। इन्होंने संयोगात् का अर्थ भाव्यभावक- सम्बन्ध और निष्पत्ति का तात्पर्य भुक्ति अर्थात् आस्वाद स्वीकार किया है। इनके अनुसार रस की निष्पत्ति सहृदय में होती है। अभिनवगुप्त- अभिनवगुप्त ने अपने ग्रन्थों में अपना परिचय स्वयं विस्तार पूर्वक दिया है। इसके अनुसार उनके पूर्वज कन्नौज के निवासी थे। अनिवगुप्त से लगभग 200 वर्ष पूर्व इनके पूर्वज अत्रिगुप्त कन्नौज से कश्मीर जाकर बस गये। वस्तुतः इसके पीछे भी एक इतिहास है। तत्कालीन कश्मीर नरेश ललितादित्य (725-71) ने कन्नौज के राजा यशोवर्मन् (630 ई0 से 640 ई०) पर आक्रमण करके उन्हें पराजित कर दिया। विद्वान् अत्रिगुप्त की विद्वत्ता से प्रभावित होकर ललितादित्य ने उन्हें कश्मीर बुलाया, वहीं
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy