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________________ [२७४] रसार्णवसुधाकरः तेनापूर्वा सा समुल्लासलक्ष्मी-- मिन्दुस्पृष्टं सिन्धुलेखेव भेजे ।।472।। जैसे (अभिनन्द के कादम्बरी कथासार में ८.८०) चन्द्रापीड को उस (कादम्बरी) ने गले से लगा लिया जैसे गले में प्राण प्राप्त हो गया हो। उससे पूर्व उस (चन्द्रापीड) ने उसी प्रकार आनन्द रूपी लक्ष्मी को प्राप्त किया जैसे चन्द्रमा के स्पर्श से सागर की लहरें प्राप्त करती हैं।।472।। यथा वा (कर्पूरमजर्याम् १.२) अकलिअपरिरम्भविब्भमाई अजणिअचुम्बण डम्बराइ दूरं । अघडिअघणताडणाइ णिच्चं णमह अणङ्गरहीण मोहजाई ।।473 ।। (अकलितपरिरम्भविभ्रमाण्यजनित चुम्बनाडम्बराणि दूरम् । अघटित घनताडनानि नित्यं नमतानङ्गरत्योमोहनानि।।) अत्र पुनरुज्जीवितेन कामेन सह रत्याः रतेहियोपचारोपेक्षयैव तत्फलरूपसुखप्राप्तिकथनात् सम्भोगः समृद्ध्यते। अथवा जैसे (कर्पूरमञ्जरी १.२ में) दर्शकगण आलिङ्गन चेष्टा से रहित, चुम्बन के आडम्बर से शून्य और अंग-विशेषों के कठिन ताडन से रहित काम और रति की सुरत क्रीडाओं को निरन्तर नमस्कार करें, अथवा उनका रसास्वाद करें।।473 ।। यहाँ पुनर्जीवित कामदेव के साथ रति की बायोपचार की उपेक्षा से ही उसके परिणामरूप सुखप्राप्ति का कथन होने से सम्भोग समृद्धि को प्राप्त करता है। अथ हास्यम् - विभावैरनुभावैश्च स्वोचितैर्व्यभिचारिभिः ।।२२६।। हासः सदस्यरस्यत्वं नीतो हास्य इतीर्यते । तत्रालस्यग्लानिनिद्राबोधाद्या व्यभिचारिणः ।। २२७।। २. हास्य रस- अपने अनुकूल विभावों, अनुभावों तथा व्यभिचारी भावों द्वारा सभा के लोगों (दर्शकों) में रसत्व को प्राप्त हास (नामक स्थायी भाव) हास्य (रस) कहलाता है। उस (हास्य रस) में आलस्य, ग्लानि, निद्रा, बोध इत्यादि व्यभिचारी भाव होते हैं।।२२६उ.-२२७।। एष द्वधा भवेदात्मपरस्थितिविभागतः । हास्य रस के भेद- अपनी परिस्थिति (आश्रय) के विभाग (भेद) से यह दो प्रकार का होता है- १. आत्मस्थ और २. परस्थ।।२२८पू.॥ आत्मस्थस्तु यदा स्वस्य विकारैर्हसितः स्वयम् ॥२२८।।
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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