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________________ द्वितीयो विलासः सञ्चारिणोऽनुभावश्च करुणे विप्रवासवत् । (ई) करुण विप्रलम्भ- दोनों (नायक-नायिका) में से एक के मरने पर पुनः समागम की आशा उत्पन्न होने तथा करुण के आवर्तन होने से उसके पुनजीर्वित होने के समय में करुण विरह होता है, उसे करुण विप्रलम्भ कहते हैं। करुण में प्रवास विप्रलम्भ के समान (ग्लानि, विषाद, जड़ता स्मृति इत्यादि) सञ्चारी भाव तथा अनुभाव होते हैं ।। २१८उ. - २२०पू. ।। यथा (कुमारसम्भवे ४.४६) अथ मदनवधूरुपप्लवान्तं व्यसनकृशा प्रतिपालयां- बभूव । 'शशिन इव दिवातनस्य रेखा किरणपरिक्षयधूसरा प्रदोषम् ।।467 ।। अत्राकाशसरस्वतीप्रत्ययेन रतेर्विप्रलम्भः कृशत्वाद्यनुमितैग्लन्यादिभिर्व्यभिचारिर्भावैः प्रोषितसमयपरिपालनादिभिरनुभावैर्व्यज्यते । जैसे (कुमारसम्भव ४/४६ में) - इसके पश्चात् पति-वियोग के दुःख से दुर्बल शरीर वाली रति शाप की अवधि समाप्त होने की उसी प्रकार प्रतीक्षा करने लगी, जिस प्रकार दिन में निकली हुई तथा किरणों के अभाव से धुंधली और तेजहीन चन्द्रमा की कला रात के आने की प्रतीक्षा करती है । 1467।। [ २६९ ] यहाँ आकाशवाणी के विश्वास से रति का विप्रलम्भ कृशता इत्यादि के द्वारा अनुमान किया गया, ग्लानि इत्यादि व्यभिचारी भावों से, प्रोषित (दूर रहने) के समय तक की प्रतीक्षा करने (अथवा भलीभाँति अपने को सँभाले रखने) इत्यादि अनुभावों से व्यञ्जित होता है। अत्र केचिदाहुः- करुणो नाम विप्रलम्भशृङ्गारो नास्ति । उभयालम्बनस्य तस्यैकत्रैवासम्भवात् । यत्र त्वेकस्यापाये सति तदितरगता प्रलापादयो भवन्ति, स शोकान्न भिद्यत इति । तदयुक्तम् । यत्र पुनरूज्जीवनेन सम्भोगाभावः, तत्र सत्यं शोक एव । यत्र सोऽस्ति, तत्र विप्रलम्भः एव । अन्यथा सम्भोगशिरस्केऽन्यतरापायलक्षणे वैरूप्यशापप्रवासेऽपि शोकरूपत्वापत्तेः । करुण विप्रलम्भ की स्थापना- इस विषय में (धनिक, धनञ्जय आदि) कुछ लोग कहते है- "करुण नाम का विप्रलम्भ शृङ्गार नहीं होता। क्योंकि एक पात्र की मृत्यु हो जाने पर दोनों आलम्बनों (नायिका और नायक) का एकत्र होना सम्भव नहीं है। एक के मर जाने पर उस (नायक और नायिका) में से दूसरे के द्वारा जो प्रलाप इत्यादि किये जाते हैं, वे शोक से अलग नहीं है (अत: इसे करुण रस समझना चाहिए ) " यह कथन अयुक्त (अनुचित) है क्योकिं जहाँ पुनः जीवित न होने से समागम का अभाव (समागम न होना) होता है, वहाँ तो सचमुच शोक ही होता है और जहाँ वह (पुनर्जीवित होने पर समागम) होता है वहाँ विप्रलम्भ ही होता है। अन्यथा सम्भोग के चरम सीमा पर पंहुच जाने पर वैरूप्य शाप वाले प्रवास में
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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