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________________ द्वितीयो विलासः [ २६७ ] वर्तिष्यमाणो यथा (अमरुशतके ३०) भवतु विदितं व्यर्थालापरलं प्रिय! गम्यतां तनुरपि न ते दोषोऽस्माकं विधिस्तु पराङ्मुखः । तव यदि तथा रूढं प्रेमप्रपत्रमिमां दशां प्रकृतितरले का नः पीडा गते हतजीविते ।।463 ।। कार्य से भविष्यकाल वाला प्रवास विप्रलम्भ जैसे (अमरुशतक ३० में) (कोई नायिका अन्य नायिका में अनुरक्त नायक से कह रही है-) हे प्रिय, मुझे मनाने की यह सब झूठी बातें समाप्त करो, मैं सब कुछ जान गयी हूँ, अब तुम यहाँ से जाने की कृपा करो, इसमें तुम्हारा कुछ भी दोष नहीं है, वास्तव में मेरा दैव ही मुझसे विमुख हो गया है। जब तुम्हारा उतना प्रगाढ़ प्रेम इस दशा को पहुंच गया तब तुम्हें मेरे इस निन्दनीय जीवन के चले जाने से क्या पीड़ा हो सकेगी? यह जीवन तो चञ्चल है ही, यह तो उसकी प्रकृति ही है।।463 ।। वर्तमानो यथा यामीति प्रियपृष्टायाः प्रियायाः कण्ठलग्नयोः । वचो जीवितयोरासीत् पुरो निस्सरणे रणः ।।464।। कार्य से वर्तमानकाल वाला प्रवास विप्रलम्भ जैसे 'मैं परदेश जा रहा हूँ' इस प्रकार प्रियतम के द्वारा कही गयी प्रियतमा के गले में लगी हुई वाणी (बात) तथा जीवन धारण करने वाले प्राण में युद्ध होने लगा। क्योंकि जाने का उत्तर देने के लिए वाणी पहले निकलना चाहती थी और प्राण उससे पहले निकल जाना चाहता था।।।464।। अथ सम्भ्रमः . आवेगः सम्भ्रमः सोऽपि नैको दिव्यादिभेदतः । (ख) सम्भ्रम- आवेग (बेचैनी) ही सम्भ्रम कहलाता है। वह (सम्भ्रम) भी दिव्य इत्यादि भेद से अनेक प्रकार का होता है।।२१७पू.॥ दिव्यो यथा (विकमोर्वशीये ४.९) तिष्ठेत् कोपवशात् प्रभावपिहिता दीर्घ न सा कुप्यति स्वर्गायोत्पतिता भवेन्मयि पुनर्भावामस्या मनः । तां हर्तुं विबुधद्विषोऽपि न च मे शक्ता पुरोवर्तिनी सा चात्यन्तमगोचरं नयनयोर्यातेति कोऽयं विधिः ।।465 ।। अत्र विप्रलम्भस्य कारणान्तरनिरासेन कोऽयं विधिरिति विधेः कारणत्वाभिप्रायेण दिव्यसम्भ्रमजनित्वं प्रतीयते।
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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