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________________ [ २६० ] रसार्णवसुधाकरः निराहाराः सख्यः सततरुदितोच्छूननयनाः । परित्यक्तं सर्वं हसितपठितं पञ्जरशुकैस्तवावस्था चेयं विसृज कठिने ! मानमधुना ।।451।। पुरुष का निर्हेतुक मान जैसे (अमरुशतक ७ में) हे कठिने (कठोर हृदय वाली ) ! देखों, बाहर तुम्हारा प्रियतम सिर झुकाए हुए धरती कुरेद रहा है। सखियाँ बिना खाये पड़ी है, और रोते-रोते उनकी आँखे सूज गयी है, पिंजरें के तोते ने हँसना पढ़ना सब कुछ छोड़ दिया है, (यह सब देख सुन कर भी) अभी तक तुम्हारी यह दशा है, इसलिए अब भी मान छोड़ दो।।451।। यथा वा (गाथासप्तशत्याम् १ /२०) - अलिअपसुत्तअ निमीलिअक्खः देहि ! सुहअ ! मज्झ ओआसं । गण्डपरिचुम्बणपुलइअङ्ग! ण पुणो चिराइस्सं 11452 ।। (अलीकप्रसुप्तनिमीलिताक्ष ! देहि सुभग! ममावकाशम् । न पुनश्चिरयिष्यामि ।। ) गण्डपरिचुम्बन पुलकिताङ्ग! अथवा जैसे (गाथासप्तशती १.२० मे) - (नायक के प्रति नायिका की उक्ति है ) कपोल पर चुम्बन करते ही रोमाञ्च से भरते हुए तुम्हारे अङ्ग अङ्ग को देखकर मैं समझ गयी कि तुम झूठमूठ आँखे झेप कर बीच पलङ्ग पर पड़ गये हो - जैसे सो ही रहे हो । हटो, मुझे जगह दो अब देर नहीं करूँगी । 145211 अत्रालीकस्वापाक्षिनिमीलनादिसूचितपुरुषमानकारणस्य प्रसाधनगृहव्यापार निमित्तविलम्बस्थाभासत्वम् । यहाँ झूठमूठ के सोने का बहाने और आँखों के झेपने इत्यादि से सूचित होने वाले पुरुष का मान अकारण है- ( क्योंकि इससे ) प्रसाधन (शृङ्गार) गृह में (सजावट) के कार्य के कारण विलम्ब होना आभासित होता है। स्त्रिया यथा (कुमारसम्भवे ८.५१) - मुञ्च कोपमनिमित्तकोपने! सन्ध्यया प्रणमितोऽस्मि नान्यया । किं न वेत्सि सहधर्मचारिणं चक्रवाकसमवृत्तिमात्मनः ।।453।। अत्र पार्वतीमानकारणस्य परमेश्वरकृतसन्ध्याप्रणामस्याभासत्वम् । स्त्री का निर्हेतुक मान जैसे ( कुमारसम्भव ८ / ५१ में) - हे अकारण क्रोध करने वाली प्रिये ! अब क्रोध छोड़ दो सन्ध्या से मैं प्रणत हूँ और किसी से नहीं, मैं तो सदा तुम्हारे साथ ही धर्म का आचरण करने वाला हूँ, क्या तुम मुझे चकवे के समान सच्चा प्रेमी नहीं समझती ।। 453 ।।
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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