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________________ द्वितीयो विलासः [२५३] राजाओं के विलम्ब करने पर ललित चित्त से इधर-उधर टहलती हुई उनकी स्त्रियों के निःश्वास के द्वारा ओठ मलिन कर दिया, रुके हुए आसुओं को गिराने लगी और प्रियसखियों के प्रति नेत्रों की वृत्तियों (देखने की क्रिया) को दीन बना दिया (दीनता पूर्वक देखने लगी)।।440।। अथ विलाप: इह मे दिक्पथं प्रापदिहातिष्ठदिहास च ।।१९।। इत्यादिवाक्यविन्यासो विलापः इति कीर्तितः । तत्र चेष्टास्तु कुत्रापि गमनं क्वचिदीक्षणम् ।।१९१।। क्वचित् क्वचिदवस्थानं क्वचिच्च भ्रमणादयः। (६) विलाप- यहाँ मेरी आँखों के सामने रहो, यहाँ खड़े रहो, और यहाँ बैठोइत्यादि वाक्य-विन्यास विलाप कहलाता है। उसमें कहीं जाना, कहीं देखना कहीं- कहीं रुक जाना, और कहीं घूमना इत्यादि चेष्टाएँ होती है।।१९०-१९२पू.।। यथा अत्राभूदनपोतसिंहनृपतिस्तत्राहमस्मिन् लताकुञ्ज सादरवीक्षिताहमिह मामानन्दयत् स स्मितैः । इत्यालापवती विलोकितमपि व्यालोकते सम्भ्रमाद् यातं याति च सत्वरा तरुतलं लीलात एकाकिनी ।।441।। जैसे यहाँ अनपोतसिंह राजा रहें, मैं वहाँ रहूँ, इस लतामण्डप में मैं सादर (उनके) द्वारा देखी जाऊं, वे मुस्कान:पूर्वक मुझे आनन्दित करें, इस प्रकार आलाप करती हुई वह (नायिका) देखी गयी वस्तु को भी सम्भ्रम (आदर) से देखती है और पहले गये हुए वृक्ष के नीचे लीलापूर्वक अकेली ही जाती है।।441 ।। अथोन्मादः सर्वास्ववस्थासु सर्वत्र तन्मनस्कया सदा ।।१९२।। अतस्मिंस्तदिति भ्रान्तिरुन्मादो विरहोद्भवः । तत्र चेष्टास्तु विज्ञेया द्वेषः स्वेष्टेऽपि वस्तूनि ।।१९३।। दीर्घ मुहश्च निःश्वासो निर्निमेषतया स्थितिः । निर्निमित्तध्यानगानमौनादयोऽपि च ।।१९४।। (७) उन्माद- सभी अवस्थाओं में सभी जगह सदा तन्मनस्क होने के कारण 'यहीं वह है' विरह से उत्पन्न इस प्रकार का भ्रम उन्माद कहलाता है। उसमें अपनी इष्ट वस्तु के प्रति भी द्वेष, बार-बार दीर्घ निःश्वास, अपलक देखने के कारण स्थिर रहना, निरर्थक ध्यान-गानमौन इत्यादि चेष्टाएँ होती है।।१९२उ.-१९४॥
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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