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________________ | २४८] रसार्णवसुधाकरः सोऽयं पूर्वानुरागाख्यो विप्रलम्भः इतीरितः ।। १७४।। पूर्वानुराग का स्वरूप- जो पूर्वानुराग विचारशक्ति को उत्पन्न करता है, वह पूर्वानुराग नामक विप्रलम्भ होता है।।१७४॥ पारतत्र्यादयं द्वेधा दैवमानुषकल्पनात् । तत्र सञ्चारिणो ग्लानिः शङ्कासूये श्रमो भयम् ।।१७५।। निर्वेदौत्सुक्यदैन्यानि चिन्तानिद्रे प्रबोधता । विषादो जडतोन्मादो मोहो मरणमेव च ।।१७६।। पूर्वानुराग के प्रकार- परतन्त्रता के कारण यह (१) दैव (भाग्य) से उत्पन्न और (२) मानुष से उत्पन्न होने के कारण दो प्रकार का होता है। उसमें ग्लानि, शङ्का, असूया, श्रम, भय,निवेंद, उत्सुकता, दीनता, चिन्ता, अनिद्रा, प्रबोध, विषाद, जड़ता, उन्माद, मोह और मरण ये सञ्चारी भाव होते हैं।।१७५-१७६॥ तत्र दैवपारतन्त्रेण यथा (कुमारसम्भवे ३.७५) शैलात्मजापि पितुरूच्छिरसोऽभिलाषं व्यर्थं समीक्ष्य ललितं वपुरात्मनश्च । सख्याः समक्षमिति चाधिकजातलज्जा शून्या जगाम भवनाभिमुखी कथञ्चित् ।।434।। अत्र जनकाचानुकूल्येऽपि दैवपारतन्त्र्येण पार्वत्या पूर्वानुरागः। दैवपारतन्त्र्य से पूर्वानुराग जैसे (कुमारसम्भव ३/७५ में) पार्वती जी सखियों के सामने ही अपने मनस्वी पिता हिमालय की इच्छा तथा अपने सौन्दर्य दोनों ही को. इस प्रकार निष्फल होते देख कर लज्जा से गड़ सी गयी। किन्तु किसी प्रकार अपने को सम्हाल कर खोए हुए मन से वह अपने भवन की ओर चल पड़ी।।434।। यहाँ जनक (पिता हिमालय) इत्यादि के अनुकूल होने पर भी दैवपरतन्त्रता के कारण पार्वती का पूर्वानुराग है। मानुषपारतन्त्र्येण यथा (मालविकाग्निमित्रे २.४) दुल्लहो पिओ तस्सि भव हिअअ णिरासं अम्हो अङ्गो मे फुरइ किं वि वामो । एसो सो चिरदिट्ठो कहं उण दक्खिदव्वो अहं पराहीणा तुमं पुण सतिण्हं ।।435।। (दुर्लभ: प्रियस्तस्मिन् भव हृदय! निराशम् अहो अपाङ्गो में स्फरति किमपि वामः।
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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