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________________ | २३८ रसार्णवसुधाकरः तत्र गर्वस्थायित्वमुदाहृतम् (काव्यादर्श २/२९३ उद्धृतम् ) अपकर्ताहमस्मीति मा ते मनसि भूद् भयम् । विमुखेषु न मे खड्गः प्रहर्तुं जातु वाञ्छति ।।427 ।। भोज ने गर्व के स्थायिभावत्व का उदाहरण दिया है मैं (तुम्हारा) अपकार करने वाला हूँ। अतः तुम्हारे मन में भय नहीं होना चाहिए। (क्योंकि युद्ध से) विमुख हुए लोगों पर मेरी तलवार प्रहार करने के लिए इच्छा नहीं करती।।427 ।। व्याकृतं च- अत्र मयापकारःकृत इति यत्ते चेतसि भयं, तन्माभूत्। मम खड्गः पराङ्मुखेषु न कदाचिदपि प्रहर्तुमुत्सहत इति सर्वदैव रूढोहङ्कारः प्रतीयते। सोऽयं गर्वप्रकृतिरुद्धतो नाम रसो निष्पद्यत इति। और भोज ने व्याख्या किया है- यहाँ मेरे द्वारा अपकार किया गया है इसलिए तुम्हारे मन में जो भय है, वह नहीं होना चाहिए (क्योंकि) मेरी तलवार (युद्ध से) पराङ्मुख लोगों पर कभी भी प्रहार करने का उत्साह नहीं करती, इससे अङ्कुरित अहङ्कार प्रतीत होता है। वह यह गर्वमूलक उद्धत नामक रस निष्पन्न होता है। न तावदत्र गर्वः, किन्तु पूर्वमपकरिं पश्चात् भीतं द्विषन्तमवलोक्य जातया समरविमुखं न हन्मि मा भैषिरिति वाक्सचितया नीचे दया कस्यचिद वीरसार्वभौमस्य शोभन: पौरुषसात्त्विकभावः प्रतीयते। यदि वा, अभीतमपि शत्रु भीतो यदि तर्हि पलायस्वेत्यधिक्षिपतीति गर्व इति चेद् अस्तु वा गर्वः। तथापि असत्यभीतिकल्पनारूपचित्ताध्यवसायप्रकाशनद्वारेण शत्रुवधक्रोधमेव पुष्णाति। गर्व के स्थायिभावत्व का निराकरण- यहाँ गर्व नहीं है; प्रत्युत पहले अपकार करने वाले (पुन:) बाद में भयभीत शत्रु को देखकर 'युद्ध से विमुख व्यक्ति को मैं नहीं मारता, इसलिए डरो मत' इस वाक्य द्वारा सूचित होने से नीच के प्रति उत्पत्र दया वाले किसी सार्वभौम वीर का शोभायमान पुरुष-विषयक सात्त्विक भाव प्रतीत होता है अथवा भयरहित शत्रु को 'यदि भयभीत हो तो भाग जाओ' यह अधिक्षेप (अपमान) करता है, इससे गर्व है तो गर्व होवे, तो भी असत्य भय की उत्पत्ति रूप चित्त के अध्यवसाय (दृढ़निश्चय या प्रयत्न) के प्रकाशन द्वारा शत्रु के वध के लिए क्रोध को ही पुष्ट करता है। किञ्च विमुखाप्रहाररूपात्मसम्भावनारूपगर्वस्यासत्यभीतिकल्पनोपबृंहणादेष भावकानां वैरस्याय न केवलं, स्वादाभावाय चेति नास्मिन्नुदाहरणे गर्वस्य स्थायित्वमुपपद्यते। और क्या? विमुखों पर प्रहार न करना रूप आत्मसम्भावना (आत्मचिन्तन) रूप गर्व का असत्य भयोत्पत्ति के विस्तार के कारण यह भाव केवल आस्वाद रहितता के लिए नहीं है, आस्वाद के अभाव के लिए भी है, अत: इस उदाहरण में गर्व का स्थायिभावत्व नहीं प्राप्त होता।
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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