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________________ द्वितीयो विलासः [२३१] साधुर्देहे कर्मचाण्डालगेहे बध्नात्युद्यत्पूतिगन्धे रतिं कः ।।419।। अत्र कस्यचिद् वस्तुतत्त्वविचारागमश्रवणजनिता देहे जुगुप्सारूपा निन्दा व्यज्यते। अप्रिय श्रवण से जैसे मांस, चर्बी और रक्त से चिपके हुए तथा त्वचा से छिपे हुए, नसों (पेशियों) और हड्डियों से जुड़े हुए चाण्डाल के गृह के समान निकलती हुई दुर्गन्ध वाले इस शरीर के प्रति कौन सज्जन (व्यक्ति) प्रेम करेगा।।419 ।। यहाँ किसी व्यक्ति की शरीर के प्रति वस्तुतत्त्व (यथार्थ) विचार को सुनने से उत्पन्न जुगुप्सा रूपी निन्दा व्यञ्जित होती है। घृणा शुद्धाजुगुप्सान्या दशरूपे निरूपिता । सा हेयश्रवणोत्पन्नजुगुप्साया न भिद्यते ।।१४८।। इसके अतिरिक्त दशरूपक में घृणा और शुद्धा इन दो अन्य जुगुप्सा का भी निरूपण किया गया है। वह (घृणा और शुद्धा जुगुप्सा) श्रवणोत्पन्न जुगुप्सा से भिन्न नहीं है।।१४८॥ अथ भयम् भयं तु मन्तुना घोरदर्शनश्रवणादिभिः । चित्तस्यातीव चाञ्चल्यं तत्प्रायो नीचमध्ययोः ।।१४९।। उत्तमस्य तु जायेत कारणैरतिलौकिकैः । भये तु चेष्टा वैवयं स्तब्धत्वं गात्रकम्पनम् ।।१५०।। पलायनं परावृत्य वीक्षणं स्वाङ्गगोपनम् । आस्यशोषणमुत्क्रोशशरणान्वेषणादयः ।।१५१।। (८) भय- अपराध और भयङ्कर (दृश्य) के दर्शन तथा श्रवण इत्यादि चित्त का अत्यधिक चञ्चल हो जाना भय कहलाता है। यह भय प्राय: नीच और मध्यम लोगों में होता है। उत्तम लोगों में (भय) अत्यधिक लौकिक कारणों से होता है। भय में विवर्णता जड़ता, शरीर का काँपना, पलायन, पीछे मुड़ कर देखना, अपने अङ्गों को छिपाना, मुख का सूखना, शोर मचाना, शरण ढूढ़ना इत्यादि विक्रियाएँ होती है।।१४९-१५१।। मन्तुरपराधः। तस्माद्यथा (रघुवंशे १६/८०) विभूषणप्रत्युपहारहस्तं विशांपतिस्तं प्रणतं निरीक्ष्य । सौपर्णमस्त्रं प्रतिसञ्जहार प्रहृष्वनिर्बन्धरुषो हि सन्त ।।420।।
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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