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________________ [२२०] रसार्णवसुधाकरः स्रस्तं भ्रूयुगमुन्नमय्य रचितं यज्ञोपवीतेन च । सत्रद्धा जघने च वल्कलपटी पाणिश्च धत्ते धनु दृष्टं भो जनकस्य योगिन इदं दान्तं विरक्तं मनः ।।400।। शक्ति से आहार्य उत्साह जैसे (बालरामायण १/५३) में घुन लग जाने से जर्जर शङ्कर के धनुष को भुजाओं के बल के मद से मेरे द्वारा फेका गया देख कर युद्धभूमि में यह सीरध्वज जनक छोड़ना नहीं चाहते हैं। हे मेरे मुखों! तुम एक साथ हँसो। यह सङ्गम अयोग्य है।।400।। धैर्यसहायाभ्यामाहायों यथा (कुमारसम्भवे ३/१०) तव प्रसादात्कुसुमायुधोऽपि सहायमेकं मधुमेव लब्ध्वा । कुर्यां हरस्यापि पिनाकपाणे धैर्यच्युति के मम धन्विनोऽन्ये ।।401 ।। अत्र स्वभावशक्तिरहितस्य मन्मथस्येन्द्रप्रोत्साहनजनितेन धैर्येण वसन्तसहायेन चाहतोत्साहो धैर्यच्युतिचिकीर्षाकथनादभिव्यज्यते। धैर्य और सहायक से आहार्य उत्साह जैसे (कुमारसम्भव ३.१० में) यदि आपकी कृपा बनी रहे तो केवल मित्र वसन्त की सहायता से मैं अपने इस अत्यन्त कोमल पुष्प बाणों द्वारा ही पिनाक जैसे कठोर धनुष को धारण करने वाले शिव का धैर्य भी नष्ट कर दूंगा। फिर अन्य धनुर्धारियों का चर्चा ही व्यर्थ है।।401 ।। यहाँ स्वाभाविक शक्ति से रहित कामदेव का इन्द्र के प्रोत्साहन से उत्पन्न धैर्य वसन्त की सहायता से बढ़ा उत्साह, धैर्य, च्युति चिकीर्षा के कथन से व्यञ्जित होता है। अथ विस्मय: लोकोत्तरपदार्थानां तत्पूर्वावलोकनादिभिः ।।१२६।। विस्तारश्चेतसो यस्तु विस्मयो स निगद्यते । क्रियास्तत्राक्षिविस्तारसाधूक्तिपुलकायदयः ।।१२७।। (४) विस्मय- लोकोत्तर पदार्थों का उससे पहले न देखने इत्यादि के कारण जो चित्त का विस्तार होता है, उसे विस्मय कहा जाता है। उसमें आँखों का फैल जाना,शिष्टता पूर्वक वाणी, रोमाञ्च इत्यादि विक्रियाएँ होती हैं।।१२६उ.-१२७॥ यथा शिला कम्पं धत्ते शिव शिव वियङ्क्ते कठिनतामहो नारीच्छायामयति वनिताभूयमयते ।
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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