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________________ [१९८] रसार्णवसुधाकरः यहाँ विषाद की शृङ्गाराङ्गता है। - --... स्वतन्त्रत्वं यथा (रघुवंशे 6.67) सञ्चारिणी दीपशिखेव रात्रौ यं यं व्यतीयाय पतिंवरा सा । नरेन्द्रमार्गाट्ट इव . प्रपेदे विवर्णभावं स स भूमिपालः ।।360 ।। इत्यत्र विषादस्यानन्याङ्गत्वम् । एवमन्येषामपि स्वतन्त्रत्वपरतन्त्रत्वे तत्र तत्रोहनीये। विषाद की स्वतन्त्रता जैसे (रघुवंश ६.६७ में) जिस प्रकार रात में आगे बढ़ने वाली दीपशिखा राजमार्ग में बने हुए जिस महल को पार कर जब आगे बढ़ जाती है तब वह महल अन्धेरा व्याप्त हो जाने के कारण शोभारहित हो जाता है उसी प्रकार पति को स्वयं वरण करने वाली वह इन्दुमती जिस-जिस राजा को छोड़कर आगे बढ़ती जाती थी वह राजा उदासीन होता जाता था।।360।।। __यहाँ विषाद का अन्याङ्गत्व नहीं है। इसी प्रकार दूसरों की भी स्वतन्त्रता और परतन्त्रता के विषय में स्थल-स्थल पर विचार कर लेना चाहिए। अभासता भवेदेषामनौचित्यप्रवर्तिनाम् । असत्यत्वादयोग्यत्वादनौचित्यं द्विधा भवेत् ।।९८।। असत्यत्वकृतं तत्स्यादचेतनगतं तु यत् । व्यभिचारी भावों की आभासता- अनौचित्य द्वारा प्रवर्तित इन (व्याभिचारी भावों की आभासता होती है।।९८पू. अनौचित्य के प्रकार- अनौचित्य दो प्रकार का होता है - १ असत्यता से तथा (२) अयोग्यता से।।९८उ.॥ १. असत्यकृत् अनौचित्य-असत्यकृत अनौचित्य अचेतन गत होता है।।९९पू.॥ यथा (दशरूपके उद्धृतम् २१९) कस्त्वं भो! कथयामि दैवहतकं मां विद्धि शाखोटकं वैराग्यादिव वक्षि साधु विदितं कस्मादिदं श्रूयताम् । वामेनात्र वटस्तमध्वगजनः सर्वात्मना सेवते नच्छायापि परोपकारकरिणी मार्गस्थितस्यापि मे ।।361।। अत्र वृक्षविशेषत्वादचेतने शाकोटके चित्तविकारस्यासम्भवादनुचितो निवेदोऽयमाभासत्वमापद्यते।
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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