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________________ [१९६] रसार्णवसुधाकरः जैसे कि- सन्ताप का दैन्य के प्रति विभावत्व और ग्लानि के प्रति अनुभावत्व होता है। प्रहार का प्रलयमोह के प्रति विभावत्व और उग्रता के प्रति अनुभावत्व होता है। विषाद का स्तम्भ के प्रति विभावत्व और वातावेग के प्रति अनुभावत्व होता है। व्याधि का ग्लानि, जड़ता, प्रलय इत्यादि के प्रति विभावत्व है। स्वातन्त्र्यात् पारतन्त्र्याद् द्वेधामी व्यभिचारिणः ।।९६।। परपोषकतां प्राप्ताः परतन्त्रा इतीरिताः । तदभावे स्वतन्त्रा स्युर्भावा इति ते स्मृताः ।।९७।। व्यभिचारी भावों के प्रकार- स्वतन्त्रता और परतन्त्रता के भेद से ये व्याभिचारी भाव दो प्रकार के होते हैं- (१ स्वतन्त्र और २. परतन्त्र)। परतन्त्र व्यभिचारी भाव- परपोषकता को प्राप्त व्यभिचारी भाव परतन्त्र कहलाते हैं। स्वतन्त्र व्यभिचारी भाव- और उस (परपोषकता) के अभाव में व्यभिचारीभाव स्वतन्त्र कहलाते हैं ऐसा कहा गया है।।९६उ.-९७।। तत्र पारतन्त्रेण निर्वेदो यथा (अनर्घराघवे ४.४४) कुर्युः शस्त्रकथाममी यदि मनोवंशे मनुष्याङ्कराः स्याच्चेद् ब्रह्मगणोऽयमाकृतिगणस्तत्रेष्यते चेद् भवान् । सम्राजां समिधां च साधकतमं धत्ते छिदाकारणं धिमौवींकुशकर्षणोल्बणकिणग्रन्थिममायं करः ।।357।। इत्यत्र निर्वेदस्य क्रोधाङ्गत्वम्। परतन्त्रता से निर्वेद जैसे (अनर्घराघव ४.४४ में) यदि यह मनुष्य के अंकुर भी शस्त्र की बातें करने लगे और यदि ब्रह्मगण को आकृतिगण मान कर तुम्हारा भी उसी में समावेश कर दिया जाय, तब राजाओं तथा समिधाओं को समभाव से काटने वाले इस कुठार को धनुष्प्रत्यञ्चा के द्वारा घर्षण से उत्पन्न ब्रणचिह्नयुक्त हमारा हाथ व्यर्थ धारण करता है, इसे धिक्कार है।।357 ।। यहाँ निर्वेद का क्रोध के प्रति अङ्गत्व है। निर्वेदस्य स्वतन्त्रत्वं यथा (वैराग्यशतके ७१) प्राप्ताः श्रियः सकलकामदुधास्ततः किं सम्मानिताश्च विभवैः सुहृदस्ततः किम् । न्यस्तं पदं शिरसि विद्विषतां ततः किं कल्पं स्थितं तनुभृतामसुभिस्ततः किम् ।।358।। अत्र निवेदस्यानन्याङ्गत्वात् स्वतन्त्रत्वम् । .
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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