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________________ [ १९४] रसार्णवसुधाकरः नीलकण्ठ तुम कहाँ जा रहे हो तथा अपनी बाँहो को इस प्रकार फैलाती थी मानों शिव जी के गले में डाल कर उन्हें जाने से रोक रही हों।।353 ।। स्पर्शनाद् यथा (शिशुपालवधे ८.१०) आघ्राय चाननमधिस्तनमायताक्ष्याः सुप्तं तदा त्वरितकेलिभुवा श्रमेण । प्राभातिकः पवन एष सरोजगन्धी प्रबोधयन्मणिगवाक्षसमागतो माम् ।।354।। स्पर्श से बोध जैसे (शिशुपालवध ८.१० में) तब विशाल नेत्रों वाली प्रियतमा के मुख और विशाल स्तनों को सूंघ कर (उसके) अनुलेप से सुगन्धित (कमलों के) गन्ध वाली प्रातःकालीन वायु मणिनिर्मित गवाक्ष (खिड़की) से (भीतर) आकर शीघ्र सुरत से उत्पन श्रम से सोये हुए मुझको प्रबोधित किया।।354।। निःस्वानाद् यथा (रघुवंशे ९.७१) उपसि स गजयूथकर्णतालैः पटुपटहध्वनिभिविनीतनिद्रः । अरमत मधुरस्वराणि शृण्वन् । विहगविकूजितवन्दिमङ्गलानि ।।355।। ऊँची ध्वनि से बोध जैसे (रघुवंश ९/७१ में) वन में रहते हुए भी राजा दशरथ के सभी व्यवहार राजाओं के समान हुआ करते थे। प्रातःकाल जब बड़े-बड़े नगाड़ों के समान शब्द करने वाले हाथियों के कानों की फट-फट होती थी तब आँखे खुलती थी और उस समय वन के पक्षी चारणों के समान जो मंगल गीत गाते थे उन्हें सुनकर वे परम प्रसन्न होते थे।।354।। निद्रासम्पूर्त्या यथा (रघुवंशे १०.६) ते च प्रापुरुदन्वन्तं बुबुधे चादिपूरुषः । अव्याक्षेपो भविष्यन्त्या कार्यसिद्धेर्हि लक्षणम् ।।356।। निद्रापूर्ति से बोधजैसे (रघुवंश १०/६ में) देवता लोग ज्यों ही क्षीरसागर में पहुंचे त्यों ही भगवान् विष्णु भी योगनिद्रा से जग उठे। किसी कार्य में विलम्ब न होना पूर्ण होने वाले कार्य की सिद्धि का शुभ लक्षण है।।356।। उत्तमाधमध्यमेषु सात्विका व्यभिचारिणः ।।९३।। विभावैरनुभावैश्च वर्णनीया यथोचितम् । उद्वेगस्नेहदम्भेयाप्रमुखश्चित्तवृत्तयः ॥९४।।
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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