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________________ [ १७४] रसार्णवसुधाकरः प्रतीकार न करने से व्रीडा जैसे- .. दुर्वृत्त (दुराचारी) शत्रुओं द्वारा किये गये अभिमन्यु के वध से उत्पन्न भीषण क्रोध वाले तथा शत्रुओं का प्रतीकार न करने के कारण अन्तःकरण के शोक से उद्विग्न हुए अर्जुन के आँसुओं से पूरित तथा लज्जा के कारण जड़ दृष्टि धनुष पर टिकी हुई है और 'हा वत्स' यह वाणी (अन्तःकरण में) स्फुरित हो रही है किन्तु कण्ठ से बाहर नहीं निकल रही है।।303।। यहाँ शत्रुओं का प्रतीकार न करने से अर्जुन की व्रीडा (लज्जा) का कथन हुआ है। अथावहित्या अवहित्थाकारगुप्तिजैम्यप्राभवनीतिभिः ॥६६।। लज्जासाध्वसदाक्षिण्यप्रागल्भ्यापजयादिभिः । अन्यथाकथनं मिथ्याधैर्यमन्यत्र वीक्षणम् ।।६७।। कथाभङ्गादयोऽप्यस्यामनुभावा भवन्त्यमी । (१९) अवहित्या- कुटिलता, प्रभुता, नीति, लज्जा, भय, दक्षिण्य, प्रागल्भ्य, अपजय इत्यादि से आकृति का गोपन अवहित्था कहलाता है। अन्यथा कथन, मिथ्या धैर्य, अन्यत्र देखना, कथाभङ्ग इत्यादि इसके अनुभाव होते हैं।।६६उ.-६८पू.।। जैहम्याद् यथा (रघुवंशे ७.३०)- . लिङ्गैर्मुदः संवृतविक्रियास्ते हृदा प्रसन्ना इव गूढनक्रा । वैदर्भमामन्त्र्य ययुस्तदीया प्रत्यर्प्य पूजामुदाच्छलेन ।।304।। कुटिलता से अवहित्या जैसे (रघुवंश ७/३० में) - जिस प्रकार भयङ्कर जल जन्तुवों से युक्त होते हुए भी गंभीर सरोवर ऊपर से स्वच्छ जल वाले मालूम पड़ते है उसी तरह अन्दर द्वेष रखने वाले राजा लोग अपने हृदयगत द्वेष हँसी आदि के कपट को छिपा कर बाहरी प्रसन्नता व्यक्त करते थे। वे सभी विदर्भराज से आज्ञा लेकर और उनकी दी हुई सामग्री को भेंट के व्याज (बहाने) से पुनः उन्हें लौटाकर विदा हुए।।304।। प्राभवाद् यथा (उत्तरारामचरिते ३.१) अनिर्भिन्नो गभीरत्वादन्तर्गुढघनव्यथः । पुटपाकप्रतीकाशो रामस्य करुणो रसः ।।305।। प्रभुता से अवहित्था जैसे (उत्तररामचरित ३/१ में) गम्भीरता से अव्यक्त भीतर छिपी हुई गाढ़ वेदना से युक्त राम का करुण रस (शोक) पुटपाक के सदृश है।।305।।
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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