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________________ रसार्णवसुधाकरः (२) अभिघातज मृत्ति- चोट, गिरने, जलने, आत्महत्या, विष इत्यादि से होने वाली मृत्ति अभिघातज मृत्ति कहलाती है । उस घात से उत्पन्न मृत्ति में भूमि पर गिरना, रोना इत्यादि विक्रियाएँ होती है ॥ ५८ ॥ यथाभिरामराघवे [ १६८ ] आर्यशरपातविवरादुद्बुदफेनिलात्रकर्दमिता आपतन्न चलति किञ्चिद् विकृताकृतिरद्य वज्रनिहतेव | 1289 ।। जैसे अभिरामराघव में आज आर्य द्वारा (छोड़े गये) बाण के गिरने से बने छिद्र (घाव) से निकलते हुए बुलबुले से युक्त तथा झागदार रक्त से सना हुआ शरीर वज्र द्वारा मारे जाने के समान हिल नहीं पाता था और गिर जाता था । 1289 ।। विषं तु वत्सनाभाद्यमष्टौ वेगास्तदुद्भवाः । कार्यं कम्पो दाहो हिक्का फेनश्च कन्धराभङ्गः ।। ५९ ।। जडता मृतिरिति कथिताः क्रमशः प्रथमादिवेगजाश्चेष्टाः । विष से उत्पन्न आठ वेग- वत्सनाभ इत्यादि आठ विष हैं। उन विषों से उत्पन्न कृष्णता (कालिमा), कम्पन, जलन, हिचकी, फेन (झाक) गिरना, कन्ध भङ्ग, जड़ता, मृत्ति ये आठ वेग होते हैं। इन विषों से क्रमश: प्रथम (कृष्णता) इत्यादि से उत्पन्न चेष्टाएँ होती हैं। यथा प्रियदर्शिकायाम् (४.९) मृतिरवगम्यते । एषा मीलयतीदमक्षियुगलं जाता ममान्धा दिशः कण्ठोऽस्या परिखिद्यते मम गिरो निर्यान्ति कृच्छ्रादिमाः । एतस्याः श्वसितं हृतं मम तनुर्निश्चेष्टतामागता मन्येऽस्या विषवेग एव हि परं सर्वं तु दुःखं मयि ।।289 ।। अत्राक्षिनिमिलनकष्ठरोधननिःश्वासायासादिभिरारण्यिकाया विषवेगजनिता जैसे प्रियदर्शिका (४. ९ मे) - राजा - (आँसू भर कर मन ही मन ) - यह ( प्रियदर्शिका ) इन आँखों को मूँद रही है किन्तु मेरी दिशाएँ अन्धकार पूर्ण हो रही है। इसका कण्ठ अवरुद्ध हो रहा है किन्तु वह मेरी वाणी कष्ट से निकल रही है। इसकी साँस बन्द हो रही है और मेरा शरीर निश्चेष्ट हो रहा है मैं समझता हूँ कि इसे केवल विष का वेग है किन्तु सारा दुःख मुझे ही हो रहा है । । । 289।। यहाँ आँखों के मूंदने, कण्ठ के अवरुद्ध होने, निश्वास के बन्द होने से आरण्यका की विषवेग से उत्पन्न मृति ज्ञात होती है।
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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