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________________ [१६६] रसार्णवसुधाकरः झाक निकलने लगती है और कमलदण्ड (मृणाल) के अङ्कुर आभूषण हो गये हैं।।284।। अथ मोहः आपभीतिवियोगाद्यैर्मोहश्चित्तस्य मूढ़ता । विक्रियास्तत्र विज्ञेया इन्द्रियाणां च शून्यता ।।५३।। निश्चेष्टाङ्गभ्रमणपतनाघूर्णनादयः । (१४) मोह- आपत्ति, भय, वियोग, इत्यादि के कारण चित्त की जड़ता मोह कहलाती है। उसमें इन्द्रियों की शून्यता, निश्चेष्टता, अङ्गभ्रमण, पतन, चक्कर खाना इत्यादि विक्रियाएँ होती है।।५३-५४पू.॥ आपदो यथा (रघुवंशे १४/५४) ततोऽभिषङ्गानिलविप्रविद्धा प्रभ्रश्यमानाभरणप्रसूना । स्वमूर्तिलाभप्रकृति धरित्री लतेव सीता सहसा जगाम ।। 285 ।। आपत्ति से मोह- जैसे (रघुवंश १४/५४ में) जिस प्रकार लू लगने से लता के फूल झर जाते हैं और वह सूख कर पृथ्वी पर गिर पड़ती है, उसी प्रकार इस अपमान-जनक बात को सुन कर सीता के आभूषण भी गिर पड़े और वे भी अपनी माँ पृथ्वी की गोद में गिर पड़ी।।285।। . भीतेर्यथा (कुमारसम्भवे ३.५१) स्मरस्तथाभूतमयुग्मनेत्रं पश्यन्नदूरान्मनसाप्यधृष्यम् । नालक्षयत् साध्वससत्रहस्तः स्रस्तं शरं चापमपि स्वहस्तात् ।।286 ।। भय से मोह जैसे (कुमारसम्भव ३/५१ में) इस प्रकार समाधि में मग्न तथा मन से भी अगम्य त्रिनेत्र भगवान् शंकर जी को अति समीप से देख कर कामदेव इतना आतंकित हो उठा कि उसके काँपते हुए हाथ से धनुष-बाण छूटकर कब नीचे गिर पड़ा, इसे भी वह न जान सका।।286।। वियोगाद् यथा (रसकलिकायाम् ३२) तद् वक्त्रं नयने च ते स्मितसुधामुग्धं च तद् वाचिकं सा वेणी स भुजक्रमोऽतिसरलो लीलालसा सा गतिः! तन्वी सेति च सेति सेति सततं तद्ध्यानबद्धात्मनो निद्रा नो न रतिर्न चापि विरतिः शून्यं मनो वर्तते ।।287।। वियोग से मोह जैसे (प्रियतमा का) वही मुख, वही आँखें, मुस्कान रूपी अमृत से युक्त वही मधुर वाणी, वही चोटी, वही अति सरल भुजाओं का विन्यास, वही लीला से अलसाया हुआ गमन, वही कोमलाङ्गी
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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