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________________ द्वितीयो विलासः [१५३] इष्टप्राप्त्या यथा आस्तां तावदनङ्गचापविभवः का नाम सा कौमुदी दूरे तिष्ठतु मत्तकोकिलरुतं संवान्तु मन्दानिलाः । हासोल्लासतरङ्गितैरसकलैनेंत्राञ्चलैश्चञ्चलैः साकूतैरुररीकरोति तरुणी सेयं प्रणामाञ्जलिम् ।।259।। अभीष्ट प्राप्ति से गर्व जैसे भले ही कामदेव के धनुष की शक्ति बनी रहे अथवा उस चाँदनी से क्या? मतवाली कोयल की कूजन (कोलाहल) दूर रहे, अथवा मन्द वायु बहती रहे (इन सबका मेरे लिए कोई अर्थ नहीं है, क्योंकि) हास और प्रसन्नता से लहराते हुए, चञ्चल, आधे (असम्पूर्ण) और साभिप्राय नेत्राञ्चलों से वह यह तरुणी (मेरी) प्रणामाञ्जलि को हृदयस्थ (स्वीकार) कर रही है।।259।। अथ शङ्का शङ्का चौर्यापराधादेः स्वानिष्टोत्प्रेक्षणं मतम् । तत्र चेष्टा महः पार्थदर्शनं मुखशोषणम् ।।२६।। अवकुण्ठनवैवर्ण्यकण्ठसादादयोऽपि च । (८) शङ्का- चोरी इत्यादि अपराध के कारण अपने अनिष्ट का अनुमान करना शङ्का कहलाती है। बार-बार समीप में देखना, मुख का सूख जाना, कुण्ठित होना, विवर्णता, गला रूंध जाना इत्यादि चेष्टाएँ होती है।।२६-२७पू.।। शङ्का द्विधेयमात्मोत्था परोत्था चेति भेदतः ।।२७।। शङ्का के भेद- आत्मोत्था (स्वोत्था) और परोत्था भेद से शङ्का दो प्रकार की होती है।।२७३.॥ स्वकार्यजनिता स्वोत्था प्रायो व्यङ्ग्येयमिङ्गितः । इङ्गितानि तु पक्ष्मभूतारकादृष्टिविक्रियाः ।।२८।। स्वोत्था शङ्का- स्वोत्था शङ्का अपने कार्य से उत्पन्न होती है जो प्राय: आन्तरिक चेष्टाओं द्वारा ध्वनित होती है। (इस शङ्का में) आँख की बरौनियों, भौहों, पुतलियों और देखने की क्रिया में विकार-चेष्टाएँ होती है।॥२८॥ अपराधात् स्वोत्था यथातत्सख्या मरुताथ वा प्रचलिता वल्लीति मुहयद्धियो दृष्ट्वा व्याकुलतारया निगदतो मिथ्याप्रसादं मुखे । गङ्गानूतनसङ्गिनः पशुपतेरन्तःपुरं . गच्छतो नूत्ना सैव दशा स्वयं पिशुनता देवीसखीनां गता ।।260।।
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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