SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 165
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रसार्णवसुधाकरः वाला (अत एव) सहसा 'नमः शिवाय' इस अर्धोक्ति के साथ प्रफुल्लित और झुका हुआ मुख आप का कल्याण करे ।।184 ।। | ११४ ] यहाँ सर्परूपी कङ्गन लक्षण वाले वेष से उत्पन्न पार्वती के भयहास्य का शृङ्गार के अङ्ग रूप से कथन होने के कारण यह अङ्ग भयहास्यज है। चेष्टया यथा प्रह्लादवत्सल! वयं बिभिमो विहारादस्मादिति ध्वनितनर्मसु गोपिकानाम् । लीलामृदुस्तनतटेषु नखाङ्कुराणि व्यापारयन्नवतु मामनृपं मुकुन्दः ।।185 ।। अत्र नखाङ्कुरव्यापारेण जनितस्य गोपिकाहसितस्य प्रह्लादवत्सलेति चतुरोक्तिरूपस्य शृङ्गाराङ्गभयहास्यजत्वम् । चेष्टा द्वारा अन्यरसाङ्ग भयहास्यज जैसे हे प्रह्लाद वत्सल (कृष्ण) ! हम लोग इस विहार से डर रही हैं- इस प्रकार गोपियों की ध्वनित कामकेलि में लीला के कारण कोमल स्तनों के घेरे पर नख के चिह्नों को बनाते हुए श्रीकृष्ण मुझ दीन की रक्षा करें ।।185 | यहाँ नख के चिह्न बनाने के कार्य से उत्पन्न तथा 'प्रह्लादवत्सल' इस चतुरतापूर्वक कहे गये हास्य का शृङ्गार के अङ्गभूत होने से भयहास्यजत्व है। अग्राम्यनर्मनिर्माणवेदिना शिङ्गभूभुजा । नर्माष्टादशधा भिन्नमेवं स्फुटमुदाहृतम् ।। २७६ ।। शिष्ट नर्मनिर्माण के ज्ञाता शिङ्गभूपाल के द्वारा अठ्ठारह प्रकार के पृथक्-पृथक् नर्म को उदाहरण सहित स्पष्ट किया गया है ।। २७६॥ अथ नर्मस्फञ्ज नर्मस्फञ्जः सुखोद्योगः भयान्तो नवसङ्गमे । २. नर्मस्फञ्ज - नूतन समागम में यदि प्रारम्भ में सुख हो और अन्त में भय 'कि कहीं कोई देख तो नहीं रहा है' उसे नर्मस्फञ्ज कहते हैं ।। २७७५. ।। यथा (सरस्वतीकण्ठाभरणे उद्धृतम् ) - अपेतव्याहारं धतुविविधशिल्पव्यतिकरं 1 करस्पर्शारम्भप्रगलितदूकुलान्तशयनम् मुहुर्बद्धोत्कम्पं दिशि दिशि मुहुप्रेरितदृशो - रहल्यासुत्राम्णोः क्षणिकमिव तत्सङ्गमनमभूत् ।।186।।
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy