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________________ [ १०० ] दैत्येन्द्र रसार्णवसुधाकरः तरसा देवदेवेशमागतौ रणकाङ्क्षिणौ ।। २४६ ।। उसी समय बल और मद से उन्मत्त हुए तथा युद्ध की अभिलाषा करने वाले और कैटभ देवदेवेश (भगवान्) के पास आये ॥ २४६॥ मधु विविधैः परुषैर्वाक्यैरधिक्षेपविधायिनौ । मुष्टिजानुप्रहारैश्च योधयामासतुर्हरिम् ।। २४७।। दोषारोपण करने वाले अपशब्दों का प्रयोग करने वाले (राक्षसों) ने अनेक कठोर शब्दों से तथा मुष्टिका और पैरों के द्वारा प्रहार से भगवान् से युद्ध की इच्छा किया ॥ २४७॥ तन्नाभिकमलोत्पन्नः प्रजापतिरभाषत् । किमेतद्भारती वृत्तिरधुनापि प्रवर्तते ।। २४८ ।। तब उनके नाभिकमल से उत्पन्न प्रजापति (ब्रह्मा) ने कहावृत्ति चल रही है || २४८ ॥ अब भी यह भारती तदिम नयदुर्धषौ निधनं त्वरया विभो ! इति तस्य वचः श्रुत्वा निजगाद जनार्दनः ।। २४९ ।। हे भगवन्! शीघ्रता से इन दोनों भयङ्कर राक्षसों का निधन कर दीजिए। उस (ब्रह्मा) के इस वचन को सुनकर जनार्दन (भगवान्) ने कहा ।। २४९ ॥ इदं काव्यक्रियाहेतोर्भारती निर्मिता ध्रुवम् । भाषणाद् वाक्यबहुलाद् भारतीयं भविष्यति ।। २५० ।। निश्चित् रूप से यह काव्यसृजन के लिए भारती बना दी गयी है। वाक्य की बहुलता के साथ भाषण करने के कारण यह भारती ( वृत्ति) होगी ।। २५० ॥ अधुनैव निषूद्येतामित्याभाष्य वचो हरिः । निर्मलैर्निर्विकारैश्च साङ्गहारैर्मनोहरैः ।। २५१ ।। अस्तौ योधयामास दैत्येन्द्रौ बलशालिनौ । 'अब विनष्ट किये जाँय' इस वचन को कह कर निर्मल, निर्विकार तथा अङ्गों के हावभाव के कारण मनोहर अङ्गों से भगवान् ने बलशाली दोनों दैत्येन्द्रों (मधु और कैटभ) से युद्ध किया ॥२५१-२५२पू.।। भूमिस्थानकसंय्योगैः पदक्षेपैस्तथा हरिः ।। २५२।। भूमिस्तदाभवद् भारस्तद्वशादपि भारती । वलितैः शार्ङ्गिणस्तत्र दीप्तैः सम्भ्रमवर्जितैः ।। २५२ ।। सत्वाधिकैर्बाहुदण्डैः सात्त्वती वृत्तिरुद्गता ।
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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