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________________ [८८] रसार्णवसुधाकरः मजीवयन्मारुतिरात्तवैरः ।।137।। जैसे हनुमन्नाटक १४.९१ में) (लक्ष्मण कहते हैं-) पूज्या (सीता) को निर्जन जङ्गल में छोड़ने के लिए और उनकी रूलायी सुनने के लिए (मैं अभी जीवित हूँ) लङ्का के युद्ध में सुखपूर्वक मरे हुए मुझे जीवित करके मानो हनुमान् ने मेरे साथ दुश्मनी साधा है।।137।। अथ संलापः__उक्तिप्रत्युक्तिमद् वाक्यं संलाप इति कीर्तितम् ।। २२२। ३. संल्लाप - कथनोपकथन से युक्त वाक्य संल्लाप कहलाता है।।२२२उ.।। यथा भिक्षां प्रदेहि ललितोत्पलनेत्रे! पुष्पिण्यहं खलु सुरासुरवन्दनीय! । बाले ! तथा यदि फलं त्वयि विद्यते मे वाक्यैरलं फलभुजीश! परोऽस्ति याहि ।।138।। जैसे (नायक-) हे मनोहर कमल के समान नेत्रों वाली! मुझे भिक्षा दो। (नायिका-) हे सुरासुर द्वारा वन्दनीय! (इस समय) मैं पुष्पिणी (ऋतुमती) हूँ। (नायक-) हे! बाले यदि ऐसा है तो तुम्हारे प्रति मेरी याचना (तुम पुष्पवती हो तो फल के लिए मेरी कामना है)। (नायिका-) हे फल (भोगने की कामना करने) के स्वामी! अधिक कहने से क्या लाभ! (फल का उपभोग करने वाला) दूसरा है। अतः तुम (यहाँ से) जाओ।।138।। अथ प्रलापः व्यर्थालापः प्रलापः स्यात् । ४. प्रलाप- व्यर्थ (निरर्थक) कथन प्रलाप कहलाता है। यथा मुखं तु चन्द्रप्रतिमं तिमं तिमं स्तनौ च पीनौ कठिनौ ठिनौ ठिनौ । कटिर्विशाला रभसा भसा भसा अहो विचित्रं तरुणी रुणी रुणी ।।139।। जैसे मुख चन्द्रमा के समान है, दोनों स्तन हृष्टपुष्ट तथा कठोर हैं और कमर विशाल और प्रचण्ड है, अहा! यह विचित्र युवती है।।139।।
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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