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________________ प्रथमो विलासः [७७] अथ विच्छितिः___ आकल्पकल्पनाल्पापि विच्छित्तिरतिकान्तिकृत् ।।२०२।। ३. विच्छिति- अधिक निपुणता से अल्प वेशभूषा बनाना विच्छिति कहलाता है।।२०२उ.॥ यथा आलोलैरभिगम्यते मधुकरैः केशेषु माल्यग्रहः कान्तिः कापि कपोलयोः प्रथयते ताम्बूलमन्तर्गतम् । अङ्गानामनुमीयते परिमलैरालेपनप्रक्रिया वेषः कोऽपि विदग्ध एष सुदृशः सूते सुखं चक्षुषोः ।।115।। जैसे (अत्यन्त निपुणता से सजावट के कारण) चञ्चल (उड़ते हुए) भ्रमरों से(रमणी के) बालों (जूड़े) में माला धारण का बोध होता है, दोनों गालों की कोई (अनुपम) कान्ति (लालिमा) ताम्बूल के अन्तर्गत बढ़ी हुई है। सुगन्ध से अङ्गों पर (सुगन्धित द्रव्यों का) आलेप होने के कार्य का अनुमान होता है (इस प्रकार इस रमणी का) यह कोई (अनुपम) परिपुष्ट वेष आखों में सुख उत्पन कर रहा है।।115।। अथ विभ्रमः प्रियागमनवेलायां मदनावेशसम्भ्रात् ।। विभ्रमोऽङ्गदहारादिभूषास्थानविपर्ययः ।। २०३।। ४. विभ्रम- प्रियतम के आगमन के समय कामावेश के कारण जल्दीबाजी में बाजूबन्द, हार इत्यादि को यथोचित स्थान पर न धारण करके अन्य स्थान पर धारण कर लेना विभ्रम कहलाता है।।२०३॥ यथा चकार काचित् सितचन्दनाङ्के काञ्चीकलापं स्तनभारयुग्मे । प्रियं प्रति प्रेषितदृष्टिरन्या नितम्बबिम्बे च बबन्ध हारम् ।।116।। जैसे (प्रियतम के आगमन के समय कामावेग से जल्दबाजी में) किसी (नायिका) ने सफेद चन्दन का लेप लगे हुए दोनों स्तनों पर करधनी को पहन लिया और प्रियतम की ओर दृष्टि डालती हुई (नायिका) ने नितम्बफलक (चूतड़ों के घेरे पर) हार बाँध लिया।।116।।
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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