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________________ प्रथमो विलासः [४९]. एषा प्रिये निद्राणे पार्श्वे तिष्ठत निश्चला । गर्वातिरेकनिभृता शीतैः स्रग्दामचन्दनैः ।।१३९।। भावमाबोधयन्त्येनं तद्भावविक्षणोत्सुका । प्रियतम के साथ अभिसरण करने में स्वीया (नायिका) लज्जा के विनष्ट होने इत्यादि की आशङ्का से, व्याघ्र की गर्जना से भयभीत मृगशावक के समान चञ्चल नेत्रों वाली, नीला इत्यादि (समयानुकूल) वस्त्र धारण करने वाली, शरीर पर चूँघट काढ़े हुई, अपने शरीर में अङ्गों को छिपाये हुई, ध्वनिरहित पैरों को रखने (चलने)वाली और केवल अतिशय प्रिय सखी के साथ (अभिसरण के लिए) उत्सुक होकर जाती है। यह नायिका सोये हुए प्रियतम के पास निश्चल बैठती है। गर्व की अधिकता से भरी हुई (अत्यधिक गर्वित) शीतल पुष्पमाला और चन्दन के द्वारा उस (प्रियतम) को अपने भावों का उत्सुक होकर बोध कराती हैं।।१३६उ.-१४०पू.।। यथा तमःसवर्णं विदधे विभूषणं निनाददोषेण नुनोद नूपुरम् । प्रतीक्षितुं न स्फुटचन्द्रिकाभयादियेष दूतीमभिसारिकाजनः ।।65 ।। जैसे अन्धकार के समान आभूषणों को धारण करती है। ध्वनि के दोष के कारण नूपुरों को निकाल देती है। चाँदनी से भय के कारण अभिसारिकाएँ दूती- जनों की प्रतीक्षा करना नहीं चाहती।।65 ।। यथा वा मल्लिकाभारभारिण्यः सर्वाङ्गीणार्द्रचन्दनाः । क्षौमवत्यो न लक्ष्यन्ते ज्योत्नायामभिसारिकाः ।।66 ।। अथवा जैसे चमेली (के पुष्पों) के भार से भरी हुई तथा सभी अङ्गों में गीला चन्दन लगायी हुई, और रेशमी वस्त्र पहनी हुई अभिसारिकाएँ चाँदनी (रात) में भी नहीं दिखलायी पड़तीं।।66।। (अथ कन्याभिसारिका) स्वीयावत्कन्यका ज्ञेया कान्ताभिसरणाक्रमे ।।१४०।। (अथ वेश्याभिसारिका) वेश्याभिसारिका त्वेति हृष्टा वैशिकनायकम् । आविर्भूतस्मितमुखी. मदघूर्णितलोचना ।।१४१।। अनुलिप्ताखिलाङ्गी च विचित्राभरणान्विता । स्नेहाङ्कुरितरोमाञ्चस्फुटीभूतमनोभवा ।।१४२।।
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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