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बरसेंगे, जिससे दग्ध प्राय बनी हुई इस भारत भूमि पर हरियाली, वृक्ष, लता, औषधि आदि प्रकट होंगे। भूमि की इस समृद्धि को देखकर मनुष्य गुफा-विलों से बाहर आकर मैदानों में बसेंगे, और मांसाहार को छोड़कर वनस्पति-भोजी बनेंगे। प्रतिदिन उनमें रूप, रंग, बुद्धि आयुष्य की वृद्धि होगी और उत्सर्पिणी के दुष्षमा समय के अन्त तक वे पर्याप्त सभ्य बन जायेंगे। वे अपना सामाजिक संगठन करेंगे। ग्राम नगर बसा कर रहेंगे। घोड़े हाथी, बैल, आदि का संग्रह करना सीखेंगे। पढ़ना, लिखना, शिल्पकला आदि का प्रचार होगा। अग्नि के प्रकट होने पर भोजन पकाना आदि विज्ञान प्रकट होंगे। दुष्षमा के बाद दुष्षमसुषमा नामक तृतीयारक प्रारम्भ होगा जब कि एक एक कर के फिर चौबीस तीर्थङ्कर होंगे और तीर्थ प्रवर्तन कर भारत वर्ष में धर्म का प्रचार करेंगे।
उत्सर्पिणी के दुष्षमसुषमा के बाद क्रमशः सुषमदुष्षमा, सुषमा, और सुषम सुषमा नामक चौथा पांचवां और छटा ये तीन आरे होंगे। इनमें सुषमदुष्षमा के आदि भाग में फिर धर्म-कर्म का विच्छेद हो जायगा । तब जीवों के बड़े बड़े शरीर
और बड़े बड़े आयुष्य होंगे। वे वनों में रहेंगे और दिव्य वनस्पतियों से अपना जीवन निर्वाह करेंगे।
फिर अंवसर्पिणी काल लगेगा और प्रत्येक वस्तु का हास होने लगेगा।
इस प्रकार अनन्त उत्सर्पिणियां व अवसर्पिणियां इस संसार में व्यतीत होगई और होंगी। जिन जीवों ने संसार-प्रवाह से निकल कर वास्तविक धर्म का आराधन किया उन्हींने इस कालचक्र को पार कर स्वस्वरूप को प्राप्त किया और करेंगे।