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________________ (४४६ ) . . अर्थ-इस प्रकार हे ब्राह्मण इस लोक में तथागत उत्पन्न होता है। वह अर्हन , सम्यक् सम्बुद्ध, विद्याचरणसम्पन्न, सुगत. लोकविद्, श्रेष्ठ, पुरुषों में धर्मसारथि, देव मनुष्यों को शास्ता और सम्बोधि प्राप्त ऐसा भगवान् वह देवसहित मनुष्यसहित, ब्रह्म सहित लोक को तथा श्रमण ब्राह्मण देव मनुष्य सहित प्रजा को स्वयं जान कर प्रवेदन करते हैं । वे धर्म की देशना करते हैं, जिसकी आदि में कल्याण है, मध्य में कल्याण है, अन्तमें कल्याण है। अर्थसहित, शब्द सहित, सम्पूर्ण विशुद्ध ब्रह्मचर्य का प्रकाशन करते हैं । उस धर्म को सुनता है गृहपति वा गृहपतिपुत्र, जो अन्यतर कुल में उत्पन्न हुआ होता है वह उस धर्म को सुनकर तथागत के ऊपर श्रद्धालाभ करता है । वह उस श्रद्धालाभ से युक्त होकर यह कहता है गृहवास बाधारूप है "रजापयो अब्भोकासो पब्बजा"..." ..."। एकान्त परिपूर्ण, एकान्त परिशुद्ध, शंख जैसा उज्ज्वल ब्रह्मचर्य घर में रहकर आचरण करना सुकर नहीं । इस वास्ते मैं केश श्मश्रु को निकाल कर काषायवस्त्रों को पहिन कर घर से निकल अनगार हो जाऊं । वह बाद में अल्प अथवा महान् भोग सामग्री को छोड़कर थोड़े अथवा बड़े परिवार को छोड़कर केश श्मश्रु को दूर कर काषाय वस्त्रों को पहिन कर घर से निकल अनगार बन जाता है। अनगार - सो एवं पब्बज्जितेन समानो भिक्खूनं सिक्खासाजीवसमापनो पाणतिपातं पहाय पाणातिपाता पटिविरतो होति । निहितदण्डो
SR No.022991
Book TitleManav Bhojya Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherKalyanvijay Shastra Sangraha Samiti
Publication Year1961
Total Pages556
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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