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( ४२७ ) निर्ग्रन्थों का तपोऽनुष्ठान करने के बाद इन्होंने संन्यासी सम्प्रदायों में प्रचलित तपों का अनुसरण किया था जो नीचे दिया जाता है। ___ "सो साकभक्खो वा होमि, सामाकभक्खो वा होमि, नीवारभक्खो वा होमि दुहार क्यो, दद्दल भक्खो, हट भक्खो. कणभक्खो, आचामं भक्खो, पिञ्चाक भक्खो, तिणभक्खो, गोमय भक्खोवा होमि, वन मूल फला हारो यापेमि पवत्त फल भोजी । सो. साणानिपि धारेमि, मसाणापि, छवदुस्सानिपि, पंसु कुला निपि, तिरीटी निपि, अजिनंपि, अजिन क्खिपंपि, कुसचीरंपि, वाक्चीरंपि, फलक चीरंपि, केसकम्बलंपि, उलक पक्खंपि धारेमि, केसमस्सुलोचकोपि होमि, केसमेस्सु लोचनानुयोगमनुयुत्तो, उन्भट्ठ कोपि होमि, आसन परिक्खितो उक्कुटिको पिटोमि उक्कुटिप्पधान मनुयुत्तो, कंटकापस्सायिको होमि, कण्ट काप स्सये सेग्यं कपेपि, सायतति- यकंपि, उदको रोहणानुयोग मनुयुत्तो विहरामि । इति विहितं कायस्स आताप परितापनानुयोग मनुयुत्तो विहरामि । एवरूपं अनेक इदं मे सारिपुत्त तपस्सिीताप होति ।
"मज्झिम निकाय" पृ० १३७ अर्थ:-हे सारिपुत्र ! वह मैं शाक, सामाकधान्य, निवार धान्य, चमार द्वारा फेके गये चर्म के टुकड़े, सेवाल कण, आचामदग्धान, पिण्याक (तिल की खली ), तृण, गोमय (गोबर) इन पदार्थों का भक्षण कर के रहता, वन्य मूल फलों का माहार कर के समय बिताता, तैयार किया हुआ फल खाकर दिन निर्वाह करता,