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मेघातिथी कहते हैं
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यावद् वर्षत्यकालेऽपि यावत् किवा च मेदिनी । ताक्न विचरेद् भिखुः स्वधर्म परिषालयम् ॥ कचोपस्थ शिखावर्ज - मृतु सन्धिषु कम्पयेत् । न त्रीनृतूनतिक्रामेन भिक्षुः संचरेत् क्वचित् ॥
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अर्थ- वर्षाकाल व्यतीत हो जाने पर भी जब तक वृष्टि, भात हो और जब तक पृथ्वी जल से भीगी हो तब तक भिक्षु विहार न करे और अपने वर्षा वास के नियम का पालन करे ।
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कक्ष तथा गुह्यभाग को छोड़कर मुंह तथा सिर के बालों का दो दो महीने पर वपन कराना चाहिए, कदापि प्रति ऋतु चपन न हो तो छः महीना को तो अतिक्रमण न करे ।
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बर्षावास स्थिति के सम्बन्ध में अत्रि कहते हैंप्रायेण प्रावृषि प्राणिसंकुलं वर्त्म दृश्यते । प्राषाढ्यादि चतुर्मासं, कार्तिक्यन्तं तु संवसेत् ॥
अर्थ- बहुधा वर्षा ऋतु में मार्ग जीवों से संकुल देखे जाते हैं, अतः संन्यासी को आषाढी पूर्णिमा से लेकर कार्तिक तक चार महीना एक स्थान में वास करना चाहिए ।
दक्ष कहते हैं
कथाचारे खल्ले सार्थे, पुरे गोष्ठे सद्गृहे । निवसेन यति पठ्सु, स्थाि