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( ३७५ ) किसी की सेवा न करे, गृहस्थ तथा वानप्रस्थों के साथ प्रीति करना यत्नपूर्वक छोड़ दे।
संन्यासी सर्व प्रकार के परिग्रह को छोड़ कर नित्य अकेला विचरे, भिक्षावृत्ति से प्राप्त याचित अथवा अयाचित भोजन से अपनी जीविका निर्वाह करे, याचित भैक्ष्यान्न सर्वश्रेष्ठ है, उसके अभाव में पहले बना हुआ अयाचित भिक्षान्न मिले तो भिक्षु ग्रहण कर सकता है।
दश यम - आनृशंस्यं क्षमा सत्य-महिंसा-दम-आर्जवम् । . प्रीतिः प्रसादो माधुर्य-मक्रोधश्च यमा दश ॥ अर्थः-अक्रूरता, क्षमा, सत्य, अहिंसा, दम, सरलता, प्रीति प्रसाद, मधुरता, अक्रोध ये दश यम संस्यासियों को पालना चाहिये।
पितामह के मत से दश यमःअहिंसा-सत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्यापरिग्रहौ । अक्रोधो गुरुशुश्रूषा, शौर्च दुर्भुक्तिवर्जितं ॥ अर्थः-अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, क्रोधाभाव, गुरुसेवा, शौच, अभक्ष्यभक्षण त्याग और मनः वचन काय योगों में अप्रमत्तता।