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________________ ( ३६८ ) इसके विपरीत मानसिक तृष्णाओं के रहते संन्यास लेने पर उससे पतित होने का सम्भव है। संन्यास ग्रहण करने के सम्बन्ध में व्यास कहते हैं । ब्रह्मचारी गृहस्थो वा, वानप्रस्थोऽथवा पुनः । विरक्तः सर्वकामेभ्यः, · पारिवाज्यं समाश्रयेत् ।। अर्थः-ब्रह्मचारी, गृहस्थ, अथवा वानप्रस्थ किसी भी अवस्था में हो जब सब इच्छाओं से विरक्त हो जाय तब परिव्रज्या स्वीकार कर ले। "अमिहोत्रं गवालम्भं, संन्यासं पलपैतृकम्" । इस स्मृति वाक्य से कलियुग में सन्न्यास के निषेध की उपस्थित होने वाली आपत्ति के निवारणार्थ निम्न प्रकार से विधान किया गया है। यावद् वर्ण विभागोऽस्ति, यावद् वेदः प्रवत्तते । तावन्न्यासोऽग्निहोत्रंच, कर्तव्यं तु कलौ युगे । अर्थः-जब तक वर्ण विभाग का अस्तित्व है, और वेद ज्ञान की प्रवृत्ति विद्यमान है, तब तक कलियुग में भी संन्यास तथा अग्निहोत्र करने चाहिए। उपयुक्त निरूपण से यह ज्ञात हो जायगा कि प्राथमिक तीन आश्रमों का आराधन करने के बाद ही संन्यास आश्रम को स्वीकार करना चाहिये ऐसा सैद्धान्तिक नियम नहीं है।
SR No.022991
Book TitleManav Bhojya Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherKalyanvijay Shastra Sangraha Samiti
Publication Year1961
Total Pages556
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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