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( ३६६ ) यति और भिक्षावृत्ति से जीवन निर्वाह करने याला होने से भिन्तु ये सभी संन्यासी के पर्याय वाचक नाम हैं।
संन्यास मार्ग का स्वीकार कब करना इस विषय का स्पष्टीकरण करते हुए याज्ञवल्क्य जाबालोपनिषद् में नीचे लिखे अनुसार लिखते हैं___“अथ हैन जनको वैदेहो याज्ञवल्क्यमुपसमेत्योवाच भगवन् ! संन्यासं वहीति । स होवाच याज्ञवल्क्यः । ब्रह्मचर्य परिसमाप्य गृही भवेत् । वनी भूत्वा प्रव्रजेत् । यदि वेतरथा ब्रह्मचर्यादेव प्रव्रजेत् गृहाद् वा वनाद्वा । अथ पुनरवती वा व्रती वा स्नातको वाऽस्नातको वोत्सन्नाग्निको वा यहरेष विरजेत् तदहरेव प्रव्रजेत्।।"
अर्थः-जनक वैदेह ने याज्ञवल्क्य से पूछा हे भगवन् ! संन्यास को कहिये । इस पर याज्ञवल्क्य बोले-ब्रह्मचर्य आश्रम समाप्त करके गृहस्थ से वानप्रस्थ बन कर, फिर संन्यासी बने मथथा इस क्रम के बिना भी ब्रह्मचर्य आश्रम से ही सन्यासी बन सकता है। अथवा गृहस्थ आश्रम से वा बन से प्रव्रजित हो सकता है। अथवा व्रतवान् हो, अथवा अवती, स्नातक हो, अथवा अस्नातक, श्राहितामिक हो अथवा अनाहितानिक, जिस दिन संसार से विरक्त हो उसी दिन प्रजित हो सकता है।
याज्ञवल्क्य उपनिषद् में भी याज्ञवल्क्य ने उक्त अभिप्राय से मिलता जुलता ही अभिप्राय व्यक्त किया है, जो नीचे लिखे