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( २६२ ) है और बढ़े हुए नखों केशों से यह वानप्रस्थ है, ऐसा समझा. जाता है।
संन्यासी संन्यासी शम्ब से यहां वैदिक संन्यासी अभिप्रेत है।
संन्यास की प्राचीनता प्राचीन वेद संहितामों में संभ्यास अथवा संन्यासी परिव्राजक भादि शब्द दृष्टिगोचर नहीं होते। इससे आधुनिक विद्वान यह मानने लग गये है कि प्राचीन काल में संन्यम्ताश्रम नहीं था, परन्तु यह मान्यता प्रामाणिक नही कही जा सकती, क्योंकि उपनिषदों में परिबाट शब्द मिलता है । बौधायन गृह्य सूत्र जो सबसे प्राचीन गृम सत्र है उसमें संन्यासियों के प्रकार तथा प्रचार विधानों का सविस्तार वर्णन मिलता है।
प्राचीन से प्राचीन जैन सूत्रों में भी चरफ, परिव्राजक आदि संन्यासियों के उल्लेख मिलते हैं। इससे यह तो निश्चित हो कि यह आश्रम आज कल के विद्वान् जितना अर्वाचीन समझते है उतना अर्वाचीन नहीं, बल्कि वेद काल से ही चली पाने वाली यह संस्था है।
यहां प्रश्न हो सकता है कि यह आश्रम इतना प्राचीन है तो ऋग्वेदादि में इसका नामोल्लेख क्यों नहीं मिलता ? .... इस का उत्तर अह है कि संन्यासी जङ्गलों पहाड़ों आदि में, रहते थे, प्रामों नगरों में बहुत कमाते थे। प्राथमिक संन्यास लेने