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क्षत्रिय के कर्त्तव्य कर्म क्षत्रिय के कर्त्तव्य कर्म के सम्बन्ध में वसिष्ठ कहते हैं:
त्रीणि राजन्यस्याध्ययनं यजनं दानं शस्त्रेण च प्रजापालनं स्वधर्मस्तेन जीवेत् । । अर्थः- क्षत्रिय के तीन कर्म हैं. पढ़ना, यज्ञ तथा दान और शस्त्र से प्रजापालन करना उसका धर्म है, उस धर्म से अपना जीवन बिताना चाहिए।
वैश्य के कर्त्तव्य कर्म वैश्य के कर्त्तव्य कर्म के सम्बन्ध में वसिष्ठ लिखते हैं:"एतान्येव त्रीणि वैश्यस्य कृषिवाणिज्यपाशुपाल्यकुसीदानि च"
अर्थः-क्षत्रिय के तीन कर्म ही वैश्य के भी होते हैं, इनके अतिरिक्त खेती, व्यापार, पशुपालन, और व्याज वट्टा उपजाना ये चार कर्म भी वैश्य के कर्तव्य है।
"अजीवन्तः स्वधर्मेणान्यतरा पापीयसीवृत्ति मातिष्ठेरन तु कदाचिज्ज्यायसोम्" ॥ __ अर्थः-अपने अपने धर्म से निर्वाह न होने पर निम्न आश्रमी की किसी एक वृत्ति का आश्रय ले न कि उच्च वृत्ति का अर्थात् ब्राह्मण अपने धर्म से निर्वाह न होने पर क्षत्रियादि की वृत्ति प्रहण कर सकता है । क्षत्रिय अपनी आजीविका के लिये वैश्यवृत्ति