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( ३३६ ) - धर्म में ऊपर चढ़ने के सोपान हैं-जिनका वैदिक धर्म साहित्य में आश्रम इस नाम से वर्णन किया गया है। ___उक्त प्रत्येक आश्रम में पहुंच कर आश्रमी को क्या क्या कार्य करने पड़ते हैं उन सब का यहां निरूपण करना हमारे उद्देश्य के बाहर है, अतः प्राथमिक तीन आश्चमों का दिग्दर्शन मात्र कराके हम चतुर्थाश्रम पर जायेंगे। . . . ...
.. ब्रह्मचारी हारीतस्मृति के निम्नश्लोकों में ब्रह्मचारी का निरूपण किया गया है।
अजिनं दन्तकाष्ठञ्च, मेखलाञ्चोषवीतकम् । धारयेदप्रमत्तश्च, ब्रह्मचारी समाहितः ॥ सायं प्रातश्चरेद् मैच्यम् , भोज्याथे संयतेन्द्रियः । आचम्य प्रयतो नित्यं, न कुर्याद् दन्तधावनम् ।। छत्रं चोपानहचव, गन्धमाल्यादि वर्जयेत् । नृत्यं गीतमथालापं, मैथुनं च विवर्जयेत् ।। हस्त्यश्वारोहणञ्चव, संत्यजेत् संयतेन्द्रियः । सन्ध्योपास्तिं प्रकुर्वीत, ब्रह्मचारी व्रत-स्थितः ॥
अर्थः-ब्रह्मचारी मानसिक समाधि को न खोता हुआ प्रमाद रहित होकर अपने पास मृगचर्म, दण्ड, मेखला और यज्ञोपवीत रक्खे अर्थात् धारण करे। ___ ब्रह्मचारी इन्द्रियों को वश में रख कर भोजन के लिये प्रातः
और सायंकाल भिक्षाचर्या करे, हमेशा भोजम के पूर्व जल से आचमन करे पर दातुन न करे। '