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अर्थ - जहां कुश तृण न केशर से प्रमार्जित भूमि में नीचे " तकार" को संयुक्त करना चाहिये
मिले वहां वास चूर्ण अथवा नाग "ककार" वर्ण लिख कर उसके ।
जाए दिसाए ग्रामो तत्तो सीसं तु होइ कायब्वं । . उतरक्खट्ठा एस विही से समासेणं ॥ ४२ ॥
अर्थ - राव की परिष्ठापन-भूमि से जिस दिशा में ग्राम हो उस दिशा में शव का शिर करना चाहिए और विपरीत दिशा में उसके पग । शव की उत्थान की रक्षा के लिये संक्षेप में यह विधि कही गयी है ।
"चिरहट्ठा उवगरणं दोसा उ भवे अचिंध करणंमि । मिच्छत्त सो व राया व कुणइ गामाण वह करणं ॥ ४३ ॥ अर्थ- परिष्ठापित श्रमण शरीर के पास उसके उपकरण मुखवस्त्रिका, रजो. हरण, चोलपट्टक, ये तीन उपकरण स्थापित करने चाहिए । यथाजात उपकरणों के पास में न रखने से अधिक दोषों की आपत्ति हो सकती है । मृतक श्रमण का जीव कलेवर के पास उपकरण न देखकर पूर्व भविक श्रद्धान से पतित हो जाता है । अथवा राजा आदि उसके पास साधु के चिन्हों को
१. " पारिट्ठावरिया निज्जुत्ति" शक के प्रारम्भकाल की कृति है, उस समय के ककार और तकार को संयुक्त करने से मनुष्य के पुतले को सी प्राकृति बनती थी ।